भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दर्द ग़ैरों का भी अपना-सा लगा है लोगों / आलोक यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक यादव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:55, 4 मार्च 2016 के समय का अवतरण

दर्द ग़ैरों का भी अपना सा लगा है लोगो
मुझको ये वस्फ़ मेरी माँ से मिला है लोगो

उसके क़दमों के निशाँ हैं मैं जिधर भी देखूँ,
घर तो माँ का ही तसव्वुर में बसा है लोगो

जो उसूलों का दिया माँ ने किया था रौशन
उम्र भर मुझको मिली उसकी ज़िया है लोगो

उम्र को मुझपे वो हावी नहीं होने देती
जब तलक माँ है ये बचपन भी बचा है लोगो

मुश्किलें हो गयीं आसान मुझे सब 'आलोक'
मेरे हमराह , मेरी माँ की दुआ है लोगो

मई 2014
तसव्वुर-कल्पना; ज़िया -प्रकाश
प्रकाशित : दैनिक जागरण (साहित्यिक पुनर्नवा) दिनांक : 30 जून 2014