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दर्पण / सुभाष काक

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रचनाकार: सुभाष काक

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दर्पण में कई पशु

अपने को पहचानते नहीं।

मानव पहचानते तो हैं

पर प्रत्येक असन्तुष्ट है

अपने रूप से।


दर्पण से पहले का क्षेत्र

भाव और भावना का लोक है

त्रिशंकु का।

रूप की विचित्रता से लज्जा निकलती है।


नदी का कांपता तल

और तलवार भी दर्पण हैं।

अस्तित्व मिटाकर ही तो

अपने को जाना जाता है।