भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिये तीरगी जब मिटाने लगे/ सर्वत एम जमाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिए तीरगी जब मिटाने लगे
अचानक हवा के निशाने लगे

जो सूरज उठा रोशनी बांटने
तो सब रात के गीत गाने लगे

हमें धुन कि मंजिल तो आए करीब
सफ़र की ये कोशिश ठिकाने लगे

जो कल तक थे हवा के मुहाफिज यहाँ
वही आज चेहरे छुपाने लगे

ये शीशे ये जर्रे तो बेजान थे
मगर धूप में जगमगाने लगे

फ़रिश्ता नहीं हूँ यही खौफ है
खुदा, जाने कब आजमाने लगे

ग़ज़ल तुमको पढनी थी सर्वत मगर
तुम आज अपना दुखड़ा सुनाने लगे