भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिलरुबा, दिलदार, दिलआरा न था / ज़ाहिद अबरोल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र 'द्विज' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:35, 31 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

</poem>


दिलरूबा, दिलदार, दिलआरा न था शहर में कोई तिरे जैसा न था

नाख़ुदाई का वो रूत्बः ले गया उम्र भर पानी में जो उतरा न था

‘कृष्ण’ ने कंकर बहुत फंेके मगर अब के ‘राधा’ का घड़ा कच्चा न था

ख़त्म कर बैठा है ख़ुद को भीड़ में जब तलक तन्हा था वो मरता न था

अक्स ज़ाहिर था मगर था इक सराब नक़्श धुंधला था मगर मिटता न था

मैं जिया हूं उस समुन्दर की तरह जिस की क़िस्मत में कोई दरिया न था

गर्द-आलूद आंख थी ‘’ज़ाहिद” मिरी वरना आईनः तो वो मैला न था

शब्दार्थ
<references/>

</poem>