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"दुःखों की बस्तियों में तो / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर

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रचनाकार: भावना कुँअर
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बन के काज़ल सज जाना तुम।
 
बन के काज़ल सज जाना तुम।
 
Categories: कविताएँ | भावना कुँअर
 

14:51, 8 मई 2009 के समय का अवतरण

फुरसत से घर में आना तुम

और आके फिर ना जाना तुम


मन तितली बनकर डोल रहा

बन फूल वहीं बस जाना तुम ।


अधरों में अब है प्यास जगी

बनके झरना बह जाना तुम ।


बेरंग हुए इन हाथों में

बनके मेंहदी रच जाना तुम ।


नैनों में है जो सूनापन

बन के काज़ल सज जाना तुम।