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दूर तुम / महेन्द्र भटनागर

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दूर तुम प्रिय, मन बहुत बेचैन !

अजनबी कुछ आज का वातावरण,
कर गया जैसे कि कोई धन हरण,

और हम निर्धन बने
वेदना कारण बने

मूक बन पछता रहे, जीवन अँधेरी रैन !

खो कहीं नीलांजना का हार रे,
अनमना सावन बरसता द्वार रे,

और हम एकान्त में
रात के सीमांत में

जागते खोये हुए-से, पल न लगते नैन !