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"दूर से आये थे साक़ी / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) |
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दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।। | दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।। | ||
− | हमको फँसना था | + | हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का। |
बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।। | बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।। | ||
− | + | बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल। | |
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+ | अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।। | ||
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+ | ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई। | ||
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।। | अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।। | ||
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क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’ | क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’ | ||
− | ताकि शादी | + | ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।। |
23:03, 14 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।
मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।
दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।
हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का।
बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।
बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल।
अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।।
ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।
क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’
ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।