भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"धुँआ (4) / हरबिन्दर सिंह गिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |संग्रह=धुँआ / ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:13, 7 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

यह धुएं बहुत बिषैला है
उगलता है, जहर पर जहर ।
फिर भी लोग समझ इसे अमृत,
पिये जा रहे हैं, पिये जाते रहेंगे
क्योंकि रखा है, इसे धर्म के लोटे में
और लोग तरसते हैं, इसकी एक-एक बूंद ।

जिसे पीकर शायद वो
ऐसा धर्म प्रहरी कहते हैं
होगे प्रस्थान स्वर्ग को
जहां उन्हें सत्कार से मंजूर किया जाएगा ।

परन्तु मनुष्य, क्यों भूल गया
जहर जिसे समझ अमृत पिया
दिखाने लगा है करतब अपने
और लगा है बदलने रंग आत्मा का
जिसे यमदूत ले जा रहे हैं
ले जाते-जाते वह काली पड़ने लगी है
जो हमेशा कभी दूध सी साफ रहती थी ।