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नवाँ पुष्प / कवि अग्नि लोक में / आदर्श

Kavita Kosh से
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आँखांे में आँसू भर
मोतीश्वरी मुग्धा ने
कवि को विदा किया
शुभ कामनाएँ देकर
लक्ष्य सिद्ध के लिए।
कवि तब आगे चला।

पानी और आग में तो
गहरा विरोधी भाव
मिलता है,
वरुण का उपदेश कहीं
अग्नि देव शिक्षा से
समानान्तर रेखा के ढंग पर
चले तो, असहाय होकर के तब
क्या करूँगा मैं?

किसे त्याग दूँगा और
किसे अपनाऊंगा?
सामने ही आवेगी
दुविधा की बात जब
आह! यह परिश्रम सब
”बेकार चला जायेगा।“

पांच चलते ही रहे
और कवि मानस को
चिन्ता दग्ध करती रही
जैसे धू धू करके
जलाता है
दावानल जंगल को।

कुछ समय यों ही चला
आया कवि
ज्वालामुखी पर्वत के सामने।
उससे यों बोला वह-

”हे महान ज्वालामुखी गिरिराज।
बिना रुके आग ही उगलने में
तुम लगे रहते हो
किन्तु कम मानो मत
उस आग को,
जो ले दुविधा का नाम
मेरे मन को जला रही है।

तुम तो स्वभाव से ही
करते हो
अग्नि ज्वाला धारण,
इससे नहीं है क्लेश तुमको।
किन्तु इस दुविधा की आग को
अभी मैंने
रास्ते में पाया है
सही नहीं जाती है।

सुनो, मंजूर है मुझे
आग दे दो अपनी
किन्तु घोर संशय की,
भीषण अनिश्चय की
लपटों से बचने की
कोई तदबीर कर दो।“

”अरे! तुम कौन हो?
जो संदेह अग्नि की
ज्वाला से व्याकुल हो,
सचमुच ही
वह तो भयंकर है,
उसकी लपटों के बीच
पड़े तुम कैसे?
कार्य क्या तुम्हारा है?
कहाँ तुम्हंे जाना है!

भावुकता देख कर तुम्हारी
मैं करता अनुमान हूँ
भावना में भूले हुए
भोले तुम कवि हो।
उत्तर दो
मेरा समाधान हो जिससे।“

”ज्वालामय देव!
है तुम्हारा अनुमान सत्य
मैं हूँ कवि
संशय को आगम कभी
मैंने नहीं झेली है
मुक्त करो इससे।“

”हे कवि, तुम्हारी इस आग को
बुझा नहीं सकता मैं
शक्ति इसकी है
बस हमारे अग्निदेव में
उन्हीं की कृपा से
जलता जीवन भी मेरा यह
सुख का,
संतोष का आवास है।

दीक्षा ले उनसे ही
मैंने निज धर्म जाना,
मुझको आनन्द है,
इसी पर आरुढ़ हूँ
तुम भी उन्हीं के पास
चले जाओ निर्भय,
सच्चा ज्ञान पाओगे।

”अग्निदेव का निवास कहाँ
नहीं जानता है,
चाहता हूँ निश्चय ही
उन्हीं के पास जाऊँ।

ज्वालामुखी शैलराज।
उनका बताओ पता
यही नहीं
उनके पास
पहुँचूँ किस ढंग से
इसका भी विचार करो।“

बोले तब ज्वालामुखी
तेज भरे स्वर में
”हे कवि, पहुँचाऊंगा
तुमको अग्निदेव पास।

मेरे मित्र और
साथी जाते ही रहते हैं।
मैं भी उन्हें भेजता ही रहता हूँ
मुझको सुख मिलता है
जब कोई जाने को कहता है,
अग्नि की शरण में।

अग्नि ही तो जीवन का दाता है
भूख होकर प्राणियों में
भोजन मेें स्वाद होकर
अग्नि ही तो
मानव के
सुख का विधाता है।

सुनो, मेरे पास है
विमान एक
वही तुम्हें सुविधा से
वहाँ पहुँचाएगा।

मैंने कहा सुविधा से-
इसका यह अर्थ नहीं कि
क्लेश नहीं आयेंगे
बाधाएँ तरह तरह की
सिर नहीं उठायेंगी।

नहीं, वह रास्ता ही है
ऐसी प्रमदाओं का
ज्वाला-दग्ध,
वासना से
बेहद सतायी हुई
मानव को देखते ही
टूट पड़ती हैं जो
उसके शरीर का
मन का
रस सारा पी जाने को।

जैसे बने वैसे
बचना ही होगा, उनसे,
क्योंकि वे
विमान को भी रोक कर
उसमें से
तुमको उतार लेंगी
और चाट जायेंगी
तुम्हारे सपनों का सार।

उनकी रूप ज्वाला में
मोह मग्न होकर के
अपना यदि लक्ष्य तुम भूलोगे
तन और मन सब
जलकर राख होगा।

जिसका एक एक कण
हवा बिखरायेगी
और लक्ष्य भ्रष्ट की
यह दुर्दशा होती है-
कहती यह कानों में
सर सर कर आगे चली जायेगी।

उन प्रमदाओं का भी
अपराध कुछ है नहीं,
अग्निदेव ही ने उन्हें
साधक की जांच करने के लिये
नियुक्त किया ऊँचे विचार से।

जिससे जो कच्चे हैं,
पहुँच न पायें वे
पास अग्नि देव के
व्यर्थ वहाँ
पाने का
अपनी असफलता का
कलंकित प्रमाण-पत्र।

इसलिए, सावधान।
कोमल न होना,
सुकुमार जान पड़ना मत,
अपनी कमजोरी से
आकर्षक बनना मत।

काठ जैसा नहीं,
तुम्हें लोहे जैसा भी
सख्त होना नहीं-
काठ जल जायेगा
ज्वाला में पड़कर,
लोहा भी मुलायम पड़ जायेगा
और फिर चाहे जिस ओर को
मोड़ लिया जायेगा,
नहीं,
तुम्हें पत्थर के ढंग पर
सख्त और अचल बन जाना है।
तभी तुम
होकर सफल परीक्षा में,
पार कर बाधा
उन जलती
निशाचरियांे के चुम्बन की,
मादक आवेश से
गले से लिपट जाने की-
आगे बढ़ पाओगे।

अग्नि देव पास
जब पहुँचोगे,
पुरस्कार पाओगे
परिश्रम का
त्याग का
मन को हटाकर
सब ओर से
अग्नि देव ही की भक्ति में
निमग्न करने का।
अमरता खेलेगी
तुम्हारे चरणों के पास।

अच्छा, मैं
अपने विमान को
मंगा रहा हूँ।
ध्यान करो
केवल अग्निदेव का
और करो
मन में यह अनुभव,
जैसे उनका शरीर हो
पलास के लाल फूलों सा।
प्यार करो उसको।
देखो, यह आ गया विमान है,
बैठो अब इसमें!“

कवि ने गिरिराज के
ओजस्वी भाषण को
सुन कर ध्यान से,
ग्रहण किया मन में,
और नयी शक्ति लेकर
आये हुए विमान के
अन्दर प्रवेश किया
शीघ्र ही आकाश में
विमान उड़ने लगा।

ज्यों ज्यांे विमान बढ़ा यात्रा में
इच्छा शक्ति कवि की भी
त्यों त्यों दृढ़ होती गयी।
आशंकित विघ्न
अनेक रूप धारण कर
सुन्दर से सुन्दर
रमणियों का
आने लगे,
लालच बढ़ाने लगे
कवि के हृदय में,
थोड़ी देर रुक कर
आनन्द लूट लेने का।

किन्तु कवि मानस था
अचल हिमालय सा
ज्वालामुखी पर्वत की सीख ने
किया था उसे वज्र सा।
एक एक कर
सब विघ्न लगे भागने,
आया वह भी समय
ऐसा जान पड़ा जैसे
कवि में
थकावट सी आ गयी।

मिलकर एक साथ
कई निशाचरियों ने
यौवन का
रूप का
करके उग्र संगठन
कविवर के हृदय पर
किया क्रूर आक्रमण।

कवि ने तब होकर के कातर
की पुकार-”अग्निदेव!अब
आखिरी परीक्षा में
मत गिर जाने दो,
रक्षा करो,
लो संभाल,
अब बल मेरे पास बाकी नहीं,
तुम्हीं स्वयं आकर
इन विघ्नों से युद्ध करो।“

और, यह चमत्कार देखो
कवि वाणी का
क्षण में उपद्रव सब
शांत हुए सहसा
बाधाएँ हटीं,
विमान बढ़ा आगे

शीघ्र ही वह, पहुँचा
उस लोक में,
जहाँ विराज रहे
अग्निदेव,
मुसकाते
ज्वाला में निमग्न उच्च आसन पर।

चेहरे पर
उत्कंठा भाव लिए
मिलने का
पीड़ित, परीक्षित
निज भक्त से।

सामने ही उनके
विमान रुका,
उसमें से
आया कवि बाहर।

लेटकर आठो अंग
धरती पर
उसने प्रणाम किया,
अग्नि देव ने
प्रसन्न होकर
दिया आशीर्वाद।

”वत्स, किस आशा,
किस लोभ से
इतने संकटों को झेल
मेरे पास आये हो?

वस्तुएं लुभावनी
मिली थी तुम्हें राह में
उनसे भी फेर मन
एक मात्र मेरे
ध्यान में लगाये
आये तुम।
मांगो वर,
दूँगा तुम्हें जो कुछ भी माँगोगे।“

बोला कवि, “देव!
मुझे चाहिए न कोई वर
आप का प्रसाद
मेरे लिए सभी कुछ है।

बड़े-बड़े मुनि जिसे
स्वप्न में न देख पाते
और बेद ”नेति-नेति“
कह कर ही
जिसके गुण गाते हैं
उसके ही पास
आज आया मैं।

शक्ति पायी नेत्रों में
आप का प्रचंड ज्वालल्यमान
रूप देख पाने की,
इससे भी बड़ा भाग्य
होगा किस मानव का?

फिर भी यह कैसे कहूं,
श्री चरणों में भेंट के लिए
कुछ लाया नहीं,
मैं हूँ कवि
मानव समाज का
उसकी ही वेदना
सुनानी है मुझ को।“

अग्नि देव बोले-
”तुम मानव की वेदना
सुनाने यहाँ आये हो।
कैसे उसे वेदना।
उसको तो
मैंने अनमोल उपहार दिये।

आग्नेय अस्त्र दिये
एक बढ़ एक से
राज्य दिया पृथ्वी पर
शासन आकाश का भी
दे दिया
मेरे सहयोग से ही
अधिकार मिला उसे
सागर की लहरों पर
उसका प्रताप, तेज
हमेशा बढ़ता चलता है।

अणु बम का दान कर
मैंने उसे शक्ति दी है
जिससे वह चाहे तो
ब्रह्मा की सारी सृष्टि
नष्ट कर डाले
एक ही मिनट भीतर।

इतने साधनों के
मिल जाने पर
मानव यदि आज भी
दया का पात्र हो रहा है
और तुम्हें अपना पड़ा
मेरे पास
झेल कर हजारों कठिनाइयाँ।

तो अब यही कहूँगा
मेरा खजाना खाली है
और कुछ बाकी
मेरे पास है नहीं
कि उसको अब
देकर सन्तुष्ट करूँ मानव को।

मेरा सन्देश यही
जाकर सुनाओ वहां
मेरे पास बाकी
केवल अब क्रोध है;
मुझको उत्तेजित बनाने की
भूल करेगा तो अब
उसको दिये अस्त्र सब
पानी बना डालूंगा
और उसे भूंज कर
अपने विकराल क्रोध ज्वाला में
हा्रस कर डालूँगा।“

अन्तिम अग्निवाणी के
उच्चारण साथ ही
अग्निदेव भौंहे टेढ़ी हो गयीं
लाल चेहरा
अचानक ही और लाल हो गया।

खून सा उतर आया
लाल पड़े नेत्रों में
देख कर बदली
अचानक ही
भाव भंगी
सहमा कवि, चिन्ता ग्रस्त, दुखी और
भयभीत भी हुआ।

आकर सन्नाटे में
कुछ देर मौन रहा,
क्रमशः भावों में
देख परिवर्तन कुछ
उसने यह कहने की
हिम्मत की।

”देव! शक्ति मानव को
आप ने अपार दे दी,
शब्द बेधी बाण दिये
आप ने बंदूक दी
तोप दी और
मोटर, जलयान,
व्योमयान सब देकर के
उसको अतुलनीय
बल का निधान किया।

यह भी आप जानते हैं-
मानव ने आप की कृपा का
उपयोग नहीं ठीक किया।
बंदूकें मार मार
प्राण लिए पक्षियों के,
पशुओं के जीवन की
साँसें भी गिन लीं।

अच्छे बुरे शासन में
अन्तर न कोई किया,
जनता को होता है दुख तो
हुआ करे,
तोपें चला
उसने अनेक राज्य जीत लिये।

लाखों व्यक्तियों को
भून डाला बारूद में
केवल इस इरादे से-
एक व्यक्ति अथवा
अनेक व्यक्तियों की
असम्भावना तृप्त होवे,
एक व्यक्ति अथवा कुछ
उसके अनुयामी व्यक्ति
अपनी कामुकता को
अपनी विलासिता को
खूब चरितार्थ करें।

सबसे बड़ा पक्षपात
मानव के साथ
किया आपने
देकर उसे अणु बम,
मृत्युकिरण, हाईड्रोजन बम आदि
जिसके हो
भाई और बन्धु हैं।

देकर ये अस्त्र
मानो आपने
पट्टा लिखा मानव के नाम
इस सृष्टि का
मनमानी संहार कर
भूतल को एक विकराल
मरघट सा बना डालने के लिए।

लाड़ प्यार आपने
बढ़ाया जिस मानव से
उसके आतंक से
चर और अचर
सब त्राहि त्राहि कर रहे
उसका मैं प्रतिनिधि
नहीं हूँ, यह जान लें।

मैं तो उस मानव का
प्रतिनिधि हूँ,
जिसने हमेशा यह चाहा है
कि एक प्राणी जिये
और दूसरे को जीने दे।

विश्व विधाता ने
विश्व यदि रचा है
तो उसकी रचना का
उद्देश्य यह होगा नहीं-
एक प्राणी जीवन विकास से भी
वंचित हो, और
दूसरा प्राणी करे उसका कलेवा।

अणु बम का दान
आप वापस लें
भय का, आतंक का
चोरी और डाके का
दूसरे का मांस खा कर
खुद मजबूत होने का
शासन समाप्त हो।

ठगों और डाकुओं की
कमी पहले भी न थी,
किन्तु आया जब से
साम्राज्य अणु बम का
नगर नहीं है कोई
गांव एक भी है नहीं
जहां वृद्धि लाखों गुना
हुई हो न उसकी।

चिन्ता की शेष बात
यह है, देव।
धरती पर बाकी नहीं रहा अब
विश्वास सत्य में, ईमान में
जहरीला हो गया है
मानव का प्रतिदिन का जीवन।

कुटिया बना कर
एक संत आज
उसमें विश्राम करता है,
किन्तु निश्चय नहीं है उसे
कल भी उसे
बची रह जायेगी।

संत वही, नेता वही
गुरु वही, छात्र वही
व्यापारी वही, ग्राहक वही
साहित्यिक वही, कवि वही,
शासित और शासक वही
आंखों में धूल डालने में
जो माहिर हो।

छल का, कपट का,
झूठ मक्कारी का
कब तक चलेगा राज्य
कब तक जनता
जायेगी पीसी इस ढंग से?

मेरी यह प्रार्थना है आप से
अणु बल के शासन का
आप अब अंत करें।
राज्य आये प्रेम का, अहिंसा का।

कोई व्यक्ति,
कोई राष्ट्र,
चोरी का धोखे का
कर्म नहीं अपनावे।

हर एक मानव हो
दूसरे को
अपने हक में से
कुछ त्याग देने के लिए अधीर।

मानव के शासन में
जीव, जंतु, लता, पुष्प-
सभी का विकास हो
पंचशील का प्रचार
ज्ञानी और मूर्ख
बलवान और निर्बल

धनी और निर्धन
समान भाव से करें,
जिससे यह जीवन
सुख पूर्ण बने सबका।

पीड़ित मानवता की
यही है पुकार
जिसे आप तक
मुझको पहुँचानी थी
कहने में, संभव है,
कहीं भूल हो गयी हो,
किन्तु मेरा भाव
छिपा होगा नहीं आप से।“

कवि की यह वाणी सुन
अग्निदेव ने कहा-
”जान पड़ता है,
तुम मानवों में
कवि हो।
तुमने कही जो बात
भायी मुझे सुन्दर।

मैंने एकांगी
उपहार दिया मानव को
उससे हो पतन यह
हो रहा है उसका।

जहाँ आग बहुत
इकट्ठी हो जायेगी
वहां फूस झोपड़े
जलेंगे यह निश्चय है।
आग से भी अधिक
आवश्यक है पानी।

हिंसा से भी अधिक
आवश्यक अहिंसा है
जाओ, कहो मानवों से
मैंने उन्हें उष्णता दी
जीवन उत्साह दिया,
इसलिए नहीं कि
वे विषाक्त कर दें
भूतल पर जीवों का रहना ही।

उनका तरीका
यदि अब भी बदलेगा नहीं
मेरे ही अस्त्र
गति अपनी उलट कर
अनायास उनका ही
अंत कर डालेंगे।

अच्छा, अब जाओ तुम
आशीर्वाद मेरा तुम्हें,
मार्ग में सहायक हो
नई शक्ति नया ज्ञान
तुम्हें दिव्य ज्योति दें।"

बारम्बार कवि ने
प्रणाम किया,
और गति फेर दी
ज्वालामुखी पर्वत-विमान की।