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नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
जिसे तुम ने किया ख़ामोश उस से क्या सदा निकले

क़यामत इक बपा है सीना-ए-मजरूह-ए-उल्फ़त में
न तीर-ए-दिल-नशीं निकले न जान-ए-मुब्तला निकले

तुम्हारे ख़ू-गर-ए-बेदाद को क्या लुत्फ़ की हाजत
वफ़ा ऐसी न करना तुम जो आख़िर को जफ़ा निकले

गुमाँ था काम-ए-दिल अग़्यार तुम से पाते हैं लेकिन
हमारी तरह वो भी कुश्त-ए-तेग़-ए-जफ़ा निकले

ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो ‘वहशत’
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले