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नारी चेतना / अज्ञात रचनाकार

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रचनाकाल: सन 1932

जो कुछ पड़ेगी मुझ पे मुसीबत उठाऊंगी,
खि़दमत करूंगी मुल्क की और जेल जाऊंगी।

घर-भर को अपने खादी के कपड़े पिन्हाऊंगी,
और इन विदेशी लत्तों को लूका लगाऊंगी।

चरख़ा चला के छीनूंगी उनकी मशीनगन,
आदा-ए-मुल्को-क़ौम को नीचा दिखाऊंगी।

अपनी स्वदेशी बहनों को ले-ले के साथ में,
भट्टी पे हर कलाल के धरना बिठाऊंगी।

जाकर किसी भी जेल में कूटूंगी रामबांस,
और कै़दियों के साथ में चक्की चलाऊंगी।