भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निरक्षरता अगर इस देश की काफ़ूर हो जाए / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:05, 7 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निरक्षरता अगर इस देश की काफ़ूर हो जाए।
मज़ारों पर चढ़े भगवा, हरा सिंदूर हो जाए।

हसीं मूरत को दिल में दो जगह, सर पे न बैठाओ,
जहाँ से गिर पड़े तो पल में चकनाचूर हो जाए।

हसीना साथ हो तेरे तो रख दिल पे ज़रा काबू,
तेरे चेहरे की रंगत से न वो मशहूर हो जाए।

लहू हो या पसीना हो बस इतना चाहता हूँ मैं,
निकलकर जिस्म से मेरे न ये मगरूर हो जाए।

जहाँ मरहम लगाते हैं वहीं फिर घाव देते हैं,
कहीं ये दिल्लगी उनकी न इक नासूर हो जाए।