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न जाने कौन से भाई की सच्चाई छुपाती है / सूरज राय 'सूरज'

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न जाने कौन से भाई की सच्चाई छुपाती है।
ये मकड़ी आईने पर रोज़ ही जाला बनाती है॥

अंधेरों से बदन को ढांक के अश्कों से धोकर के
वो पगली दोपहर में रात को चिथड़े सुखाती है॥

हमारी दिल की फ़ि तरत काश क़ब्रों की तरह होती
जो उल्फ़ त से बगल में अपने दुश्मन को सुलाती है॥

गिरा पाई जिसे न कोख़ से माँ-बाप की कोशिश
बुढ़ापे में वह बच्ची उनको गिरने से बचाती है॥

कोई जंतर कोई मन्तर उसे आता नहीं, लेकिन
मुझे छू-छू के माँ जाने क्या अक्सर बुदबुदाती है॥

जहाँ के सामने मैं हाथ फैलाऊँ है तेरी ज़िद
मुक़द्दर आ तुझे मेरी रईसी आज़माती है॥

अरे बरसों तलक वह बेचता है ख़ून जब अपना
तभी मज़दूर की बेटी कोई मेहँदी रचाती है॥

शहंशाह है तू नंगा नाच कोई कुछ न बोलेगा
ये दुनिया सिर्फ़ कमज़ोरों पर ही तोहमत लगाती है॥

भले ही ख़ाक़ हो जाये दिये का जिस्म जल-जल कर
सुबह तो सिर्फ़ "सूरज" को ही सर अपना झुकाती है॥