भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न जाने रफ़्ता रफ़्ता क्या से क्या होते गए हम तुम / 'महशर' इनायती

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:45, 18 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='महशर' इनायती }} {{KKCatGhazal}} <poem> न जाने रफ़...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न जाने रफ़्ता रफ़्ता क्या से क्या होते गए हम तुम
के जितनी एहतियातें कीं जुदा होते गए हो हम तुम

वफ़ा हम ने नहीं छोड़ी जफ़ा तुम ने नहीं छोड़ी
मिज़ाजों से कुछ ऐसे आश्ना होते गए हम तुम

हमारे नक़्श पर चलना पड़ा अहल-ए-मोहब्बत को
ग़रज़ मंज़िल ब मंज़िल रह-नुमा होते गए हम तुम

नसीहत करने वालों को भी रश्क आने लगा हम पर
मोहब्बत का इक ऐसा सिलसिला होते गए हम तुम

न ख़त लिक्खे न बातें कीं न पैमाँ हो सके बाहम
मगर इक दूसरे का आसरा होते गए हम तुम

ब-क़ौल ए महशर ए ख़ुश फ़हम गर्दिश ने ज़माने की
मिटाया भी तो इक नक़्श ए वफ़ा होते गए हम तुम