भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने | हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने | ||
− | जिया है प्यार | + | जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी |
किसी के रूप का उन्माद कैसे भूले कोई! | किसी के रूप का उन्माद कैसे भूले कोई! | ||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई | घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई | ||
− | + | बड़े ही शान से आई थी, तार-तार गयी | |
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने | जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने | ||
वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी | वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी | ||
− | भरी सभा में | + | भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई |
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी | कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी | ||
<poem> | <poem> |
02:16, 7 जुलाई 2011 का अवतरण
न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी
वो एक बात मेरी चेतना सँवार गयी
हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने
जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी
किसी के रूप का उन्माद कैसे भूले कोई!
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी
पलट के देखा जो तुमने लजीली आँखों से
लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई
बड़े ही शान से आई थी, तार-तार गयी
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने
वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी
भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी