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पतझड़ / लवली गोस्वामी

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मैं उसकी देह में हलके दंतक्षतों से बोती रही अपना होना
उसकी सिहरनों में इच्छा बनकर उगती रही

उसकी देह को मैंने चुम्बनों के झरते निर्झर में गूँथ दिया
अपने न होने में उसके होंठो से हँसी बनकर झरती रही


यह सब इसलिए कि
एक दिन मुझे टूटकर अपने ही मन पर
शवों के सीने में लगे कब्र के पत्थर सा गड़ जाना था

नकार की ज़िदों से बनी सख़्त भीमकाय दीवारों पर
उगना था स्मृतियों के अवांछित पीपल सा

पतझड़ में पीले पत्तों का धरम निबाहते
डाल से यों ही झर जाना था बेसाख़्ता।