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परिस्थितियाँ / कीर्ति चौधरी

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ऊबड़-खाबड़ बेतरतीब पत्थरों में

थोड़ी जगह बनी।


बादलों की छाँह कभी दूर

कभी हुई घनी।


पास ही निर्झर की छल-छल

छलती रही।


जल सामीप्य की आस

पलती रही।


कँकरीली पथरीली एक चप्पा जगह

माटी की उर्वरता दूर से कर संग्रह

पौधा बढ़ता गया


मार्ग गढ़ता गया।