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रात के पहाड़ को काटकर
दर्द की फसलें
चरवाहा गीत गाएगा
गड़ेरिया हांक हाँक ले जाएगा
अपनी भेड़ें
खूटे से बंधी गाय की आंखों आँखों में
हरियाली तैरकर बहती होगी
रंभाते बछड़ों के सुर में
नहीं ठहरेंगे किसी मोड़ पर
किसी इंतजार में
औपचारिकताओं की धूंध धुँध नेकाटी संवेदना की सांससाँस
कि मैय्यत में जाते हुए भी
सुविधा नहीं भूलता आदमी
पांव पाँव की पीठ पर
उकेरना नींद
वहम को थपकियां थपकियाँ देनासुनाना लोरियां लोरियाँ मन के बहरेपन को
कि फिर जागती देह का जागना
पठार से पहाड़ होकर...।
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