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पाने से पहले जन में कुछ खोना पड़ता है / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
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पाने से पहले जन में कुछ खोना पड़ता है
कुछ बनने के लिए किसी का होना पड़ता है
घर बैठे ही सुख के बादल बरस नहीं जाते
सुख की ख़ातिर बोझ दुखों को ढोना पड़ता है
अपने मनमोहन के मन में प्यार जगाने को
मतवाली मीरा के स्वर में रोना पड़ता है
आम नहीं गलते बबूल के पेड़ उगाने से
फल जो चाहो बीच उसी का बोना पड़ता है
बिना किये कुछ हाथ कभी आता नवनीत नहीं
लेकर हाथ मथानी, दूध बिलोना पड़ता है
लहरों से मिलती माँझी को तट की भीख नहीं
मानस में साहस का दीप संजाना पड़ता है
कुटिल भाग्य की रेख न धुलती आँसू के जल से
श्रम को स्वेद कहा कर उसको धोना पड़ता है
राजा हो या रंक ‘मधुप’ मरघट में जा सबको
एक दिवस चुपचाप चिता पर सोना पड़ता है