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प्रारम्भ
धरती पर
आँधियारा फैला है
आषाढ़ के
बादल का मेला है
और
सनन सन
चली हवा हहराती
वातायन में
मस्ती बिखराती
मधुमय
पराग गदराती
किसलय से
मेरे
कदली वसनों को
दूर उड़ाती
आँचल फहराती
बावरी बदरिया
तुलसी वाले आँगन में
गहर गहर कर छायी है
बिसरायी
तेरी फिर सुध आयी है
प्रवेग
दूर
कितनी दूर...
बलखाती
कि जैसे किरण-जल में
मीन की पंक्ति उलट जाती
खिंची यह चमचमाती डोर
क्षितिज के पार
जिसका छोर
बना इस चंचला की
श्वेत पंगडडी
चली मैं
दूर, गाँव कीओर
जहाँ पर प्राण मेरे है