भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पास रक्खेगी नहीं / कमलेश भट्ट 'कमल'

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:51, 10 मई 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पास रक्खेगी नहीं सब कुछ लुटायेगी नदी

शंख शीपी रेत पानी जो भी लाएगी नदी


आज है कल को कहीं यदि सूख जाएगी नदी

होठ छूने को किसी का छटपटाएगी नदी


बैठना फुरसत से दो पल पास जाकर तुम कभी

देखना अपनी कहानी खुद सुनाएगी नदी


साथ है कुछ दूर तक ही फिर सभी को छोड़कर

खुद समन्दर में किसी दिन डूब जाएगी नदी


हमने वर्षों विष पिलाकर आजमाया है जिसे

अब हमें भी विष पिलाकर आजमाएगी नदी