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पोखरी के पोर-पोर थिर रहै ओर छोर / अनिल शंकर झा

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पोखरी के पोर-पोर थिर रहै ओर छोर
बटिया निहारै लेली रूप-गुण खान के।
कमलोॅ के आत-पात बिछलोॅ निहुत घात
ताही बीचें एके फूल खिललेॅ छै शान के।
बाल रवि देखै झाँकी लाली झरै फूल नाकी
लाली-लाली होड़ करै बिना आन-वान के।
ठिठकी मरूत रहै प्रकृति के बाँह गहै
बिसरी केॅ गति मति छोड़ी ध्यान मान के॥