"प्रलय गा रहा प्यार की देवी अब तेरी ही आशा है / संजय तिवारी" के अवतरणों में अंतर
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मन करता है मैं तेरे उन सपनों का श्रृंगार बनूँ
या अधरों के गीत का सरगम वीना के तार बनूँ
तेरे ही नयनों के उज्जवल धवल सिंधु का ये सागर
किसी रूप में तेरे ही मन आंगन का संसार बनूँ।
बहुत चितेरे उपवन के कोने से चित्र बना लेते
बहुत सपेरे सपनों में बस धुन से तुझे मना लेते
मैं क्यों रूप की मदिरा पी मदिरालय का झुठलाता हूँ
बाहुपाश स्पंदन से स्वर के लहर सहलाता हूँ
क्या आदित्य गगन के फेरे करते बैठ गया
रूप सलोना स्वप्रिल बन क्या मन में मेरे पैठ गया
हुई सिंधु सरगम की छन-छन कल-कल सरिता सी बहती
मेरे हृदय की अमिट लालसा तेरी गाथा ही कहती
आज स्वप्न में देखा हमने तुम आये मेरे घर हो
कहां बिठाऊं किसे सुनाऊं कैसा जाने व स्वर हो
रहा सोच मनदग्ध शिवालय की घंटी घनघनाती है
तेरी महिमा रूप समन्वय के ही गुण वह गाती है
स्वतंत्रता की मधुर छुवन से कोमल सा स्वर टूट गया
एक बधा था एक खुला था कोई कानन लूट गया
अभी हुआ बस प्रात भुवन का ऐ स्मृतियों की प्रतिमा
तेरा अमिट अबाध अकंटक विचरण सत्य ही ये आत्मा
मेरी मानों बात विलय की मुझ से संधि स्वीकार करो
यूं लडऩा जीवन का क्रम है क्षणभंगुर ही प्यार करो
प्यासी यह धरती है, प्यासा गगन प्यार का प्यासा है
प्यास प्यार की प्रलय काल की यह संसार ही प्यासा है
प्यास हमारी बुझे भी कैसे सिंधु संभाले तुम बैठे
प्यास यार की बढ़ती जाती क्यों अविचल बन तुम बैठे
करूं वंदना क्रंदित स्वर में अखिल विश्व ही प्यासा है
प्रलय गा रहा प्यार की देवी अब तेरी ही आशा है।