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"प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ३" के अवतरणों में अंतर

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23:42, 29 जुलाई 2011 के समय का अवतरण

        सब-नभ-तल-तारे जो उगे दीखते हैं।
        यह कुछ ठिठके से सोच में क्यों पड़े हैं।
        ब्रज-दुख अवलोके क्या हुए हैं दुखारी।
        कुछ व्यथित बने से या हमें देखते हैं॥41॥

रह-रह किरणें जो फूटती हैं दिखाती।
वह मिष इनके क्या बोध देते हमें हैं।
कर वह अथवा यों शान्ति का हैं बढ़ाते।
विपुल-व्यथित जीवों की व्यथा मोचने को॥42॥

        दुख-अनल-शिखायें व्योम में फूटती हैं।
        यह किस दुखिया का हैं कलेजा जलाती।
        अहह अहह देखो टूटता है न तारा।
        पतन दिलजले के गात का हो रहा है॥43॥

चमक-चमक तारे धीर देते हमें हैं।
सखि! मुझ दुखिया की बात भी क्या सुनेंगे?
पर-हित-रत-हो ए ठौर को जो न छोड़ें।
निशि विगत न होगी बात मेरी बनेगी॥44॥

        उडुगण थिर से क्यों हो गये दीखते हैं।
        यह विनय हमारी कान में क्या पड़ी है?
        रह-रह इनमें क्यों रंग आ-जा रहा है।
        कुछ सखि! इनको भी हो रही बेकली है॥45॥

दिन फल जब खोटे हो चुके हैं हमारे।
तब फिर सखि! कैसे काम के वे बनेंगे।
पल-पल अति फीके हो रहे हैं सितारे।
वह सफल न मेरी कामनायें करेंगे॥46॥

        यह नयन हमारे क्या हमें हैं सताते।
        अहह निपट मैली ज्योति भी हो रही है।
        मम दुख अवलोके या हुए मंद तारे।
        कुछ समझ हमारी काम देती नहीं है॥47॥

सखि! मुख अब तारे क्यों छिपाने लगे हैं।
वह दुख लखने की ताब क्या हैं न लाते।
परम-विफल होके आपदा टालने में।
वह मुख अपना हैं लाज से या छिपाते॥48॥

        क्षितिज निकट कैसी लालिमा दीखती है।
        बह रुधिर रहा है कौन सी कामिनी का।
        बिहग विकल हो-हो बोलने क्यों लगे हैं।
        सखि! सकल दिशा में आग सी क्यों लगी है॥49॥

सब समझ गई मैं काल की क्रूरता को।
पल-पल वह मेरा है कलेजा कँपाता।
अब नभ उगलेगा आग का एक गोला।
सकल-ब्रज-धार को फूँक देता जलाता॥50॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

हा! हा! ऑंखों मम-दुख-दशा देख ली औ न सोची।
बातें मेरी कमलिनिपते! कान की भी न तूने।
जो देवेगा अवनितल को नित्य का सा उँजाला।
तेरा होना उदय ब्रज में तो अंधेरा करेगा॥51॥

        नाना बातें दुख शमन को प्यार से थी सुनाती।
        धीरे-धीरे नयन-जल थी पोंछती राधिका का।
        हा! हा! प्यारी दुखित मत हो यों कभी थी सुनाती।
        रोती-रोती विकल ललिता आप होती कभी थी॥52॥

सूख जाता कमल-मुख था होठ नीला हुआ था।
दोनों ऑंखें विपुल जल में डूबती जा रही थीं।
शंकायें थीं विकल करती काँपता था कलेजा।
खिन्ना दीना परम-मलिना उन्मना राधिका थीं॥53॥