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प्रेम / हेमा पाण्डेय
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प्रेम के जिस तल पर
मैं खड़ी थी
और जहाँ मैने चाहा
कि कोई खड़ा होकर मेरी ही
तल पर निहारें मुझे
चाहे मेरी बुद्धि
किसी को भी वहाँ पर
घसीटते हुए ले जाती रही हो
लेकिन कोई वहाँ तक
पहुंच नहीं पाया
मैं वहाँ खड़ी होकर
किसी को पुकारती हूँ
मेरी पुकार जाने कहाँ-कहाँ से
टकराकर सब लोट आती है।
फिर मुझ तक
प्रेम के उस बिंदु पर
किसी को खड़ा नहीं पाती मैं
लेकिन फिर भी मुझ
अकेली के खड़े रहने से
बिंदु नहीं डगमगाता।
लगता है जैसे कोई तो है
जो उस बिंदु का
संतुलन बनाये हुए है
जिस पर मैं खड़ी हूँ
बहुत पास, जैसे
प्राणों के करीब कोई.
अजनबी फिर भी
खड़ा ही रहता है।