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"फकीर मोहन की मृत्यु-शैय्या पर उत्कल माता का रोदन / गंगाधर मेहेर / दिनेश कुमार माली" के अवतरणों में अंतर

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आह ! मेरे फकीर, मेरे प्यारे , मेरे रत्न धन
 
आह ! मेरे फकीर, मेरे प्यारे , मेरे रत्न धन
 
क्यों सो रहे हो मूँदकर अपने  नयन
 
क्यों सो रहे हो मूँदकर अपने  नयन

21:07, 23 अक्टूबर 2012 का अवतरण

रचनाकार: गंगाधर मेहर(1862-1924) “स्वभाव-कवि”

जन्मस्थान: बरपाली, संबलपुर

कविता संग्रह: रस रत्नाकर(1890), अहल्यास्तव(1892), इंदुमती(1894), महिमा(1897), कीचक-वध(1903/1910), कविता-कल्लोल (1912), उत्कल-लक्ष्मी(1914), अयोध्या दृश्य(1914), प्रणय बल्लरी(1914), तपस्विनी(1914), पद्मिनी, अर्ध्यथाली(1918), कृषक संगीत (1921), भारती भावना(1923), कवितामाला

आह ! मेरे फकीर, मेरे प्यारे , मेरे रत्न धन
क्यों सो रहे हो मूँदकर अपने नयन
आर्त भाव से पुकार रही मैं, तुम्हारी जननी
उठ क्यों नहीं रहे हो, हुई नहीं रजनी
उठो मेरे लाल, खोलकर अपने कमलनयन
 विश्वास दिलाओ मुझे कहकर अपने मधुर वचन
तुम्हारे बिना मेरा अब यह सारा जग सूना
आत्म/सुख वाली कोई अच्छी कथा कहो ना !
मेरे लिए तुमने नहीं देखी धूप और वर्षा
इसलिए केवल तुम पर ही है मुझे भरोसा
हर रात उठ जाते थे सुनकर मेरी पुकार
आज क्यों नहीं निकल रहे तुम्हारे हृदय उदगार
न देखा मेरे खातिर कोई ज्वर या व्याधि
न गिना दूर पास, बारिश ,चक्रवात या आंधी
आज जो रो रहे हैं बैठकर तुम्हारे पास
उन्हें उठकर क्यों नहीं दे रहे हो दिलास
हर रात जो तुम, सो जाते गहरी नींद
उठाती मैं तुम्हें सूर्योदय से पहले कहकर जयहिंद
सुनने के लिए तुम्हारे अधरों का मधुर/गान
सिखाने के लिए अपने भाइयों को तुम ज्ञान।
कभी/ कभी दिन हो जाते थे ध्यानमग्न
मेरे दुख हरण के लिए करते परम यत्न
फिर से आँखे खोलो और पकड़ो अपनी कलम
आज क्यों मेरे बेटे ऐसे पड़े हो नरम
दीर्घ समय से पड़े हो मूँदकर अपने नयन
मत छीनो तुम मेरा सुख/शयन
तब क्यों नहीं ले रहे हो श्वास/निश्वास
मुझे देखकर भी नहीं हो रहा है विश्वास
सीखे थे पुत्र जो तुमने मुझसे योग/हवन
रुद्ध क्यों कर दिए तब अपने प्राण/पवन
इतना ठंडा क्यों लग रहा है तुम्हारा बदन
क्या सही में,छोड़ दिए हो अपना जीवन/धन।
अरे ! राधु और मधु तुम कहाँ गए हो
बुलाने से भी तुम सुन नहीं रहे हो
अब तुम मेरे लिए क्या हो गए बधिर
तब कौन अब पोंछेंगा मेरे नयनों का नीर
गोद में लेकर दुलारती थी तुम तीन रत्न
समझ रही थी अपने आपको को सौभागन
मन में था मुझे कितना अपने पर गर्व
विधाता ने लूट लिया आज मेरा सर्वस्व
अंत में तूने सूनी करदी जननी की कोल
 हृदय में उठाकर अति करूण शोक कल्लोल
करोड़ों बेटों में अब एक नहीं बचा ऐसा
पाती थी जिनसे शांति और विश्राम तुम्हारे जैसा
मेरे प्यारे राधू मधू कब चले गए विदेश
न भेजा मुझे अबतक कोई खबर/संदेश
क्या तुम भी उस देश चले गए हो ?
क्या तुम्हें मैं जाने से रोक नहीं सकती ?
तुम्हारी विरह/वेदना में दग्ध है मेरे प्राण
गा रही लगातार मैं शोकहर संगीत/गान
उस पोथी को तू दे गया किसके हाथ
गाएगा कौन अब तेरे जैसा मेरे साथ
जैसे जैसे जितनी ही बढ़ी तुम्हारी अपनी वयस
वैसे वैसे उतना ही हुआ तुम्हारा गान सरस
तुम्हारे बिना अब और कौन ज्ञानसिद्ध कुमार
दिखेंगे अब और कहाँ, मेरे लाडले राजकुमार !

ले आओ रामायण, महाभारत
और उसकी पोथियों का भंडार
गाओ बच्चों, जरा उच्च स्वर
कम हो मेरी शोक लहर
उसका नाम लिख दो मेरे सारे अंग
खुले अक्षरों में भर दो दिव्य रंग
तब जाकर कहीं कम होगा मेरा जीवन दाह
उसके बाद बढ़ेगा मुझमे थोड़ा उत्साह
उसकी नामावली का दिव्य वसन
लिखकर ओढ़ा दो मेरे बदन
उस वस्त्र से पोंछ दो मेरी आँखों का वारी
और मिटा दो हृदय का शोक भारी
उसके शरीर की भस्म लगा दो मेरे अंग
उसका प्रतिरूप बना दो मेरे उत्संग
उसे देखकर मैं आंसू पोंछूगी
करते उसका गुणगान जीवन काटूँगी।