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फेंका था जिस दरख़्त को कल हमने काट के / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
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फेंका था जिस दरख़्त को कल हमने काट के
पत्ता हरा फिर उस से निकलने लगा है यार
ये जान साहिलों के मुकद्दर संवर गए
वो ग़ुस्ले-आफताब को चलने लगा है यार
उठ और अपने होने का कुछ तो सबूत दे
पानी तो अब सरों से निकलने लगा है यार