भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंदर और मदारी / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:10, 8 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखो लड़को, बंदर आया, एक मदारी उसको लाया।
उसका है कुछ ढंग निराला, कानों में पहने है बाला।
फटे-पुराने रंग-बिरंगे कपड़े हैं उसके बेढंगे।
मुँह डरावना आँखें छोटी, लंबी दुम थोड़ी-सी मोटी।
भौंह कभी है वह मटकाता, आँखों को है कभी नचाता।
ऐसा कभी किलकिलाता है, मानो अभी काट खाता है।
दाँतों को है कभी दिखाता, कूद-फाँद है कभी मचाता।
कभी घुड़कता है मुँह बा कर, सब लोगों को बहुत डराकर।
कभी छड़ी लेकर है चलता, है वह यों ही कभी मचलता।
है सलाम को हाथ उठाता, पेट लेटकर है दिखलाता।
ठुमक ठुमककर कभी नाचता, कभी कभी है टके जाँचता।
देखो बंदर सिखलाने से, कहने सुनने समझाने से-
बातें बहुत सीख जाता है, कई काम कर दिखलाता है।
बनो आदमी तुम पढ़-लिखकर, नहीं एक तुम भी हो बंदर।