भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरसा / प्रदीप प्रभात

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:54, 5 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप प्रभात |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गरजै छै मेघ जबें बीच रातों मेॅ।
सुतलोॅ छेला बेसुध खटिया के कातों मेॅ॥
करूआ मेघ सरंगोॅ मेॅ छिरियाय गेलै।
एैलै बरसा तेॅ मोॅन हरियाय गेलै॥
चिहुंकी पड़ला निशीभंग रातों मेॅ।
देखै छी उठी ऐंगना मेॅ बकरी मेमाय छै॥
रही-रही बिजुली सेॅ सौसेॅ ऐंगना झकमकाय छै।
टिपिर-टिपिर झोॅर जबें पड़ें लाग लै॥
बाहरोॅ मेॅ छेलै गोमठोॅ आरो चुल्होॅ उघारोॅ।
गरजी केॅ सुतलोॅ पर फुलबा केॅ जगाय छी॥
गोयठोॅ बकरी आरो गैय्यौं केॅ घोॅर करै छी।
बात सुनी-सुनी छौंड़ा अनम ठाय है,
गरजै छै मेघ जबेॅ बीच रातों मेॅ।
सुतलोॅ छेलां बेसुध खटिया के कातोॅ मेॅ॥
बरसा बरसै बरसात एैलै।
पियासलोॅ धरतियों अघाय गेलै॥
नदियां ताल-तलैया सब्भेॅ भरी गेलै।
खुशी होलै गाछ-बिरीछ, सब्भें खुश होलै॥
बियाकुल हिरणीयों तृप्त होलै।
हरियाली सौसेॅ धरती छिरियाय गेलै॥
झोॅर पड़लै तेॅ मोॅन हरियाय गेलै।
करूआ मेघ संरंगोॅ मेॅ छिरियाय गेलै॥