भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बर्लिन की दीवार / 13 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:25, 18 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये पढ़ लिख भी सकते हैं।

यदि ऐसा न होता
क्योंकर स्कूल की दीवारों में
लगे पत्थरों के बोडर्स पर
उभर आती किताब ज्ञान की।

और न ही स्लेट
के अभाव में
बच्चे सीख पाते
पाठ वर्णमाला का।

फिर रह जाता मानव का
अपना भविष्य खोकर
अज्ञानता के अंधकार में।

तभी तो बर्लिन दीवार के
इन ढ़हते टुकड़ों ने
खोलकर रख दिया है
एक नया अध्याय
मानव के समक्ष
कि न करना विश्वास कभी उनका
जो सिखाते हों
पाठ देश-प्रेम का और
सजोते हों
सपने अपने स्वार्थों के।

और विश्व विजेता
बनने की चाह में
जन्म दे जाते हैं
ऐसी
कितनी ही दीवारों को
जैसी थी
दीवार बर्लिन की।