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बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

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हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!हूँ।
वही हाँ, वही जो युगों से गगन कोबिना कष्ट सुनो बात मेरी -श्रम के सम्हाले हुए हूँ; अनोखी हवा हूँ। बड़ी बावली हूँ, हवा बड़ी मस्त्मौला। नहीं कुछ फिकर है, मैं बसंती हवा बड़ी ही निडर हूँ। जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ।
वही हाँन घर-बार मेरा, वही जो धरा का बसन्तीसुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी न उद्देश्य मेरा,न इच्छा किसी की,न आशा किसी की,न प्रेमी न दुश्मन,जिधर चाहती हूँ;उधर घूमती हूँ।हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।हूँ!
वही हाँ, वही, जो सभी प्राणियों जहाँ से चली मैं जहाँ कोपिला प्रेमगई मैं -आसव जिलाए हुए हूँ,हवा हूँ शहर, हवा मैं बसंती हवा हूँ। कसम रूप की हैगाँव, कसम प्रेम की हैबस्ती,कसम इस हृदय की नदी, सुनो बात मेरीअनोखी हवा हूँरेत, बड़ी बावली हूँ!बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर हैनिर्जन,बड़ी ही निडर हूँ हरे खेत, जिधर चाहती हूँपोखर,उधर घूमती हूँ, मुसाफ़िर अजब हूँ! झुलाती चली मैं।न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,न प्रेमी न दुश्मन,जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ झुमाती चली मैं! हवा हूँ, हवा, मैं मै बसंती हवा हूँ।
जहाँ चढ़ी पेड़ महुआ,थपाथप मचाया;गिरी धम्म से चली मैंफिर, जहाँ को गई मैंशहरचढ़ी आम ऊपर, गाँवउसे भी झकोरा, बस्तीकिया कान में 'कू',नदी, रेत, निर्जनउतरकर भगी मैं, हरे खेत, पोखर,पहुँची -झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैंवहाँ,गेंहुँओं मेंहवा हूँ, हवा, मै बसंती हवा हूँ।लहर खूब मारी।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया,गिरी धम्म से फिर,चढ़ी आम ऊपरउसे भी झकोरा,किया कान में 'कू',उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँचीवहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी, पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक इसी में रही मैं।मैं! खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी!- हिलाया-झुलाया, गिरी पर न कलसी! इसी हार को पा, हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,मज़ा आ गया तब,न सुध-बुध रही कुछ,बसन्ती नवेली भरे गात में थी! हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही अरहरी लजाई,मनाया-बनाया,न मानी, न मानी,;उसे भी न छोड़ा-पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला,;हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ,हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,;बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।हूँ!
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