भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बात होती है फुसफुसा कर के / कैलाश झा 'किंकर'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:43, 19 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश झा 'किंकर' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात होती है फुसफुसा कर के।
शक का पौधा ज़रा उगा कर के।

हम भी सुनते न बेकरारी में
कान दीवार से सटा कर के।

हैसियत के बिना चले लड़ने
लफ़्ज़ की धार को पिजा कर के।

झूठ चलने का अब समय बीता
चल रहा सच है सिर उठा कर के।

तीसरी आँख देखती नभ से
सैटलाइट लगा-लगा कर के।

हमवतन साथ-साथ चलते हैं
हर क़दम से क़दम मिला करके।