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"बाल काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 
॥श्री गणेशाय नमः ॥
 
॥श्री गणेशाय नमः ॥
<br>श्रीजानकीवल्लभो विजयते
+
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
<br>श्री रामचरित मानस
+
श्री रामचरित मानस
<br>प्रथम सोपान
+
 
<br>(बालकाण्ड)
+
प्रथम सोपान
<span class="shloka"><br>श्लोक
+
(बालकाण्ड)
<br>वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
+
 
<br>मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥
+
श्लोक
<br>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
+
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
<br>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
+
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
<br>वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
+
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
<br>यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥
+
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
<br>सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
+
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
<br>वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥
+
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
<br>उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
+
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
<br>सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥
+
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
<br>यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
+
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
<br>यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
+
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
<br>यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
+
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
<br>वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥
+
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
<br>नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
+
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
<br>रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
+
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
<br>स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
+
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
<br>भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥७॥</span>
+
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
<br>
+
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
<span class="soratha">
+
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥
<br>सो०-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
+
 
<br>करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥१॥
+
सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
<br>मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
+
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
<br>जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥२॥
+
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
<br>नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
+
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥
<br>करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥३॥
+
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
<br>कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
+
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
<br>जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥४॥
+
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
<br>बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
+
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
<br>महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥५॥
+
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
</span>
+
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
<br>
+
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
<span class="chaupaai">
+
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
<br>चौ०-बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
+
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
<br>अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥१॥
+
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
<br>सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
+
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती॥
<br>जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥२॥
+
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
<br>श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
+
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
<br>दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥३॥
+
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
<br>उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
+
दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
<br>सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥४॥
+
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
</span>
+
 
<span class="doha">
+
एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
<br>दो०-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
+
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
<br>कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥१॥
+
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
</span>
+
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी॥
<br>
+
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
<span class="chaupaai">
+
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
<br>चौ०-गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय दृग दोष बिभंजन॥
+
जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
<br>तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥१॥
+
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा॥
<br>बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
+
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
<br>सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥२॥
+
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥
<br>साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
+
छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
<br>जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥३॥
+
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
<br>मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
+
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
<br>राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥४॥
+
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
<br>बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
+
दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
<br>हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥५॥
+
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10(क)॥
<br>बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
+
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
<br>सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥६॥
+
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥10(ख)॥
<br>अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥७॥
+
 
</span>
+
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
<span class="doha">
+
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
<br>दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
+
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
<br>लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥२॥
+
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
</span>
+
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
<br>
+
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
<span class="chaupaai">
+
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
<br>चौ०-मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
+
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
<br>सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥१॥
+
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
<br>बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
+
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
<br>जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥२॥
+
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
<br>मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
+
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
<br>सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥ ३॥
+
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
<br>बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
+
दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
<br>सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥४॥
+
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
<br>सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
+
 
<br>बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥५॥
+
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
<br>बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
+
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
<br>सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥६॥
+
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
</span>
+
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
<span class="doha">
+
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
<br>दो०-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
+
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
<br>अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥३(क)॥
+
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
<br>संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
+
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
<br>बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥३(ख)॥
+
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
</span>
+
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
<br>
+
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
<span class="chaupaai">
+
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
<br>चौ०-बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
+
दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
<br>पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ १॥
+
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥
<br>हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
+
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
<br>जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥२॥
+
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥
<br>तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
+
 
<br>उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥३॥
+
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
<br>पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
+
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
<br>बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥४॥
+
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
<br>पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
+
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
<br>बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥५॥
+
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
<br>बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥६॥
+
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
</span>
+
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
<span class="doha">
+
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
<br>दो०-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
+
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
<br>जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥४॥
+
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
</span>
+
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
<br>
+
दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
<span class="chaupaai">
+
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
<br>चौ०-मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
+
 
<br>बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥१॥
+
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
<br>बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
+
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
<br>बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥२॥
+
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
<br>उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
+
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
<br>सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥३॥
+
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
<br>भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
+
सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
<br>सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥४॥
+
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
<br>गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥५॥
+
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
</span>
+
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
<span class="doha">
+
दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
<br>दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
+
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
<br>सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥५॥
+
 
</span>
+
खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
<br>
+
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
<span class="chaupaai">
+
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
<br>चौ०-खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
+
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
<br>तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥१॥
+
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
<br>भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
+
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
<br>कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥२॥
+
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
<br>दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
+
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
<br>दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥३॥
+
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥
<br>माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
+
दो0-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
<br>कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥४॥
+
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
<br>सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा ॥५॥
+
 
</span>
+
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
<span class="doha">
+
काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई॥
<br>दो०-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
+
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
<br>संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥६॥
+
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥
</span>
+
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
<br>
+
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
<span class="chaupaai">
+
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
<br>चौ०-अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
+
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥
<br>काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥१॥
+
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
<br>सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
+
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥
<br>खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥२॥
+
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
<br>लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
+
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥
<br>उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥३॥
+
दो0-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
<br>किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
+
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7(क)॥
<br>हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥४॥
+
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
<br>गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
+
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7(ख)॥
<br>साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥५॥
+
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
<br>धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
+
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
<br>सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥६॥
+
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
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+
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7(घ)॥
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+
 
<br>दो०-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
+
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
<br>होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥७(क)॥
+
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
<br>सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
+
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
<br>ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥७(ख)॥
+
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥
<br>जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
+
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
<br>बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥७(ग)॥
+
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥
<br>देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
+
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
<br>बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥७(घ)॥
+
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
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+
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
<br>
+
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥
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+
निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
<br>चौ०-आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
+
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
<br>सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥१॥
+
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
<br>जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
+
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
<br>निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥२॥
+
दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
<br>करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
+
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास॥8॥
<br>सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥३॥
+
 
<br>मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
+
खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
<br>छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥४॥
+
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥
<br>जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
+
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
<br>हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥५॥
+
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥
<br>निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
+
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
<br>जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥६॥
+
हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की॥
<br>जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
+
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
<br>सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥७॥
+
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥
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+
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
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+
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥
<br>दो०-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
+
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥
<br>पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥८॥
+
दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
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+
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥9॥
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+
 
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+
 
<br>चौ०-खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
+
 
<br>हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥१॥
+
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
<br>कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
+
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
<br>भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥२॥
+
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
<br>प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
+
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥
<br>हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की॥३॥
+
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
<br>राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
+
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥
<br>कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥४॥
+
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
<br>आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
+
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
<br>भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥५॥
+
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥
<br>कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥६॥
+
दो0-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
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+
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥
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+
 
<br>दो०-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
+
जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
<br>सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥९॥
+
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें॥
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+
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
<br>
+
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
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+
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
<br>चौ०-एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
+
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
<br>मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥१॥
+
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
<br>भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
+
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
<br>बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥२॥
+
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
<br>सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
+
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
<br>सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥३॥
+
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
<br>जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
+
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
<br>सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥४॥
+
दो0-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
<br>धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
+
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥
<br>भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥५॥
+
 
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+
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
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+
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥
<br>छं०-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
+
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
<br>गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
+
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥
<br>प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
+
सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
<br>भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
+
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥
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+
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
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+
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥
<br>दो०-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
+
तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
<br>दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥१०(क)॥
+
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥
<br>स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
+
 
<br>गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥१०(ख)॥
+
दो0-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
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+
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥
<br>
+
 
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+
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
<br>चौ०-मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
+
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥
<br>नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥१॥
+
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
<br>तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
+
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥
<br>भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥२॥
+
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
<br>राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
+
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥
<br>कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥३॥
+
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
<br>कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
+
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
<br>हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥४॥
+
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
<br>जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥५॥
+
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
</span>
+
तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
<span class="doha">
+
दो0-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
<br>दो०-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
+
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14(क)॥
<br>पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥११॥
+
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
</span>
+
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14(ख)॥
<br>
+
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
<span class="chaupaai">
+
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल॥14(ग)॥
<br>चौ०-जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
+
 
<br>चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥१॥
+
सो0-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
<br>बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
+
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14(घ)॥
<br>तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥२॥
+
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
<br>जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
+
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14(ङ)॥
<br>ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥३॥
+
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
<br>समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
+
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14(च)॥
<br>एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥४॥
+
दो0-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
<br>कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
+
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14(छ)॥
<br>कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥५॥
+
 
<br>जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
+
पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
<br>समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥६॥
+
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
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+
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
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+
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके॥
<br>दो०-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
+
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
<br>नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥१२॥
+
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
</span>
+
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
<br>
+
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥
<span class="chaupaai">
+
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
<br>चौ०-सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
+
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
<br>तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥१॥
+
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
<br>एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
+
दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
<br>ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥२॥
+
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥
<br>सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
+
 
<br>जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥३॥
+
बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
<br>गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
+
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥
<br>बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥४॥
+
सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
<br>तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
+
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥
<br>मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥५॥
+
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
</span>
+
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
<span class="doha">
+
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
<br>दो०-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
+
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥
<br>चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥१३॥
+
सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
</span>
+
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
<br>
+
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
<span class="chaupaai">
+
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
<br>चौ०-एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
+
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
<br>ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥१॥
+
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥
<br>चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
+
बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
<br>कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥२॥
+
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥
<br>जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
+
सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
<br>भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥३॥
+
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥
<br>होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
+
रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
<br>जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥४॥
+
महावीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
<br>कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
+
सो0-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
<br>राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥५॥
+
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
<br>तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥६॥
+
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
</span>
+
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥
<span class="doha">
+
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
<br>दो०-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
+
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥
<br>सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥१४(क)॥
+
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
<br>सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
+
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥
<br>करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥१४(ख)॥
+
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
<br>कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
+
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
<br>बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥१४(ग)॥
+
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
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+
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥
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+
दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
<br>सो०-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
+
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥
<br>सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥१४(घ)॥
+
 
<br>बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
+
बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
<br>जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥१४(ङ)॥
+
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
<br>बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
+
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
<br>संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥१४(च)॥
+
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
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+
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
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सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
<br>दो०-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
+
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
<br>होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥१४(छ)॥
+
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
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+
दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
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+
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥
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+
 
<br>चौ०-पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
+
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
<br>मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥१॥
+
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
<br>गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
+
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
<br>सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥२॥
+
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
<br>कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
+
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
<br>अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥३॥
+
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
<br>सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
+
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
<br>सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥४॥
+
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥
<br>भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
+
दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
<br>जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥५॥
+
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥
<br>होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥६॥
+
 
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+
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
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+
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
<br>दो०-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
+
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
<br>तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥१५॥
+
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
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+
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
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+
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
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नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
<br>चौ०-बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
+
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
<br>प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥१॥
+
दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
<br>सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
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तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥
<br>बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥२॥
+
 
<br>प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
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नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
<br>दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥३॥
+
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
<br>करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
+
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
<br>जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥४॥
+
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
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+
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
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राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
<br>सो०-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
+
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
<br>बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥
+
चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
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दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
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नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥
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+
 
<br>चौ०-प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
+
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
<br>जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥१॥
+
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
<br>प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
+
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
<br>राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥२॥
+
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
<br>बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
+
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
<br>रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥३॥
+
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी॥
<br>सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
+
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
<br>सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥४॥
+
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
<br>रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
+
दो0-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
<br>महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥५॥
+
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥
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राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
<br>सो०-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
+
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
<br>जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥१७॥
+
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
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रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥
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+
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
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भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
<br>चौ०-कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
+
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
<br>बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥१॥
+
निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
<br>रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
+
दो0-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
<br>बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥२॥
+
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥
<br>सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
+
 
<br>प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥३॥
+
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
<br>जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
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नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
<br>ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥४॥
+
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
<br>पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
+
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
<br>राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥५॥
+
राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
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राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
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सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
<br>दो०-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
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फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
<br>बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥१८॥
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दो0-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
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रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
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+
मासपारायण, पहला विश्राम
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+
 
<br>चौ०-बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
+
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
<br>बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥१॥
+
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
<br>महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
+
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
<br>महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥२॥
+
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
<br>जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
+
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
<br>सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥३॥
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सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
<br>हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
+
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
<br>नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥४॥
+
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
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दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
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+
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥
<br>दो०-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
+
 
<br>राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥१९॥
+
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
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+
बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
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+
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
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+
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥
<br>चौ०-आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
+
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
<br>सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥१॥
+
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
<br>कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
+
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
<br>बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥२॥
+
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
<br>नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
+
दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
<br>भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥३॥
+
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥
<br>स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
+
 
<br>जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥४॥
+
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
</span>
+
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
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+
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
<br>दो०--एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
+
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥
<br>तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥२०॥
+
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
</span>
+
गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥
<br>
+
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
<span class="chaupaai">
+
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥
<br>चौ०-समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
+
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
<br>नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥१॥
+
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥
<br>को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
+
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥
<br>देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥२॥
+
दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
<br>रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
+
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28(क)॥
<br>सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥३॥
+
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
<br>नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
+
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28(ख)॥
<br>अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥४॥
+
 
</span>
+
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
<span class="doha">
+
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥
<br>दो०-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
+
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
<br>तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥२१॥
+
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥
</span>
+
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
<br>
+
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥
<span class="chaupaai">
+
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
<br>चौ०-नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
+
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥
<br>ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥१॥
+
दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
<br>जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
+
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥29(क)॥
<br>साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥२॥
+
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
<br>जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
+
जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29(ख)॥
<br>राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥३॥
+
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
<br>चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
+
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29(ग)॥
<br>चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम  प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥४॥
+
 
</span>
+
जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
<span class="doha">
+
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
<br>दो०-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
+
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
<br>नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥२२॥
+
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
</span>
+
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
<br>
+
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥
<span class="chaupaai">
+
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
<br>चौ०-अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
+
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥
<br>मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥१॥
+
दो0-मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
<br>प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
+
समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30(क)॥
<br>एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥२॥
+
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
<br>उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
+
किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30(ख)
<br>ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥३॥
+
 
<br>अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
+
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
<br>नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥४॥
+
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
</span>
+
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
<span class="doha">
+
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥
<br>दो०-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
+
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
<br>कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥२३॥
+
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥
</span>
+
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
<br>
+
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥
<span class="chaupaai">
+
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
<br>चौ०-राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
+
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥
<br>नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥१॥
+
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
<br>राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
+
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥
<br>रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥२॥
+
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
<br>सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
+
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥
<br>भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥३॥
+
दो0- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
<br>दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
+
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥
<br>निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥४॥
+
 
</span>
+
राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
<span class="doha">
+
जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥
<br>दो०-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
+
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
<br>नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥२४॥
+
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥
</span>
+
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
<br>
+
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥
<span class="chaupaai">
+
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
<br>चौ०-राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
+
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥
<br>नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥१॥
+
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
<br>राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
+
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥
<br>नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥२॥
+
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
<br>राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
+
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥
<br>राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥३॥
+
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
<br>सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
+
सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से॥
<br>फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥४॥
+
दो0-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
</span>
+
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32(क)॥
<span class="doha">
+
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
<br>दो०-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
+
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32(ख)॥
<br>रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥२५॥
+
 
</span>
+
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
<br><span class="vishraam">मासपारायण, पहला विश्राम</span>
+
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥
<br>
+
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
<span class="chaupaai">
+
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
<br>चौ०-नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
+
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
<br>सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥१॥
+
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
<br>नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
+
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
<br>नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥२॥
+
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी॥
<br>ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
+
दो0-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
<br>सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥३॥
+
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥
<br>अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
+
 
<br>कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥४॥
+
एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
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+
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥
<span class="doha">
+
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
<br>दो०-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
+
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
<br>जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥२६॥
+
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
</span>
+
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥
<br>
+
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
<span class="chaupaai">
+
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥
<br>चौ०-चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
+
दो0-मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
<br>बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥१॥
+
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥
<br>ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
+
 
<br>कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥२॥
+
दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
<br>नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
+
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमलमति॥
<br>राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥३॥
+
राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
<br>नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
+
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा॥
<br>कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥४॥
+
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
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+
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥
<span class="doha">
+
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
<br>दो०-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
+
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥
<br>जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥२७॥
+
रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
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+
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
<br>
+
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
<span class="chaupaai">
+
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
<br>चौ०-भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
+
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥
<br>सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥१॥
+
दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
<br>मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
+
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥
<br>राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥२॥
+
 
<br>लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
+
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
<br>गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥३॥
+
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
<br>सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
+
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
<br>साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥४॥
+
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
<br>सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
+
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
<br>यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥५॥
+
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
<br>रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥६॥
+
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
</span>
+
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
<span class="doha">
+
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
<br>दो०-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
+
दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
<br>उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥२८(क)॥
+
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥
<br>हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
+
 
<br>साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥२८(ख)॥
+
सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
</span>
+
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥
<br>
+
राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
<span class="chaupaai">
+
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥
<br>चौ०-अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
+
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
<br>समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥१॥
+
अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
<br>सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
+
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
<br>कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥२॥
+
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥
<br>रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
+
अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
<br>जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥३॥
+
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
<br>सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
+
सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
<br>ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥४॥
+
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
</span>
+
भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
<span class="doha">
+
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥
<br>दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
+
औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥
<br>तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥२९(क)॥
+
दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
<br>राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
+
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥
<br>जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥२९(ख)॥
+
 
<br>एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
+
जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
<br>बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥२९(ग)॥
+
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
</span>
+
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
<br>
+
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥
<span class="chaupaai">
+
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
<br>चौ०-जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
+
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥
<br>कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥१॥
+
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
<br>संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
+
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
<br>सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥२॥
+
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥
<br>तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
+
दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
<br>ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥३॥
+
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥
<br>जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
+
 
<br>औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥४॥
+
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
</span>
+
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥
<span class="doha">
+
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
<br>दो०-मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
+
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥
<br>समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥३०(क)॥
+
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
<br>श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
+
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
<br>किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥३०(ख)
+
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
</span>
+
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥
<br>
+
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
<span class="chaupaai">
+
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
<br>चौ०-तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
+
चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
<br>भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥१॥
+
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
<br>जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
+
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
<br>निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥२॥
+
दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
<br>बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
+
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥
<br>रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥३॥
+
 
<br>रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
+
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
<br>सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥४॥
+
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥
<br>असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
+
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
<br>संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥५॥
+
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥
<br>जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
+
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
<br>रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥६॥
+
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥
<br>सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
+
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
<br>सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥७॥
+
रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥
</span>
+
दो0-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
<span class="doha">
+
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥40॥
<br>दो०- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
+
 
<br>तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥३१॥
+
सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
</span>
+
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥
<br>
+
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
<span class="chaupaai">
+
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥
<br>चौ०-राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
+
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
<br>जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥१॥
+
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
<br>सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
+
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
<br>जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥२॥
+
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥
<br>समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
+
दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
<br>सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥३॥
+
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥
<br>काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
+
 
<br>अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥४॥
+
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
<br>मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
+
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
<br>हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥५॥
+
बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
<br>अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
+
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
<br>सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥६॥
+
बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
<br>सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
+
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥
<br>सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तंरग माल से॥७॥
+
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
</span>
+
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥
<span class="doha">
+
दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
<br>दो०-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
+
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥
<br>दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥३२(क)॥
+
 
<br>रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
+
आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
<br>सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥३२(ख)॥
+
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥
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+
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ॥
<br>
+
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥
<span class="chaupaai">
+
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
<br>चौ०-कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
+
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
<br>सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥१॥
+
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
<br>जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
+
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥
<br>कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥२॥
+
दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
<br>रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
+
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43(क)॥
<br>नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥३॥
+
 
<br>कलप भेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
+
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
<br>करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥४॥
+
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥43(ख)॥
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+
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
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+
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
<br>दो०-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
+
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
<br>सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥३३॥
+
देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
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+
पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
<br>
+
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
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+
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
<br>चौ०-एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
+
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
<br>पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥१॥
+
दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
<br>सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
+
 
<br>संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥२॥
+
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥
<br>नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
+
 
<br>जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥३॥
+
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
<br>असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
+
प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
<br>जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥४॥
+
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
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+
जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥
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+
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
<br>दो०-मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
+
करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
<br>जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥३४॥
+
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥
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+
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
<br>
+
दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
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+
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥
<br>चौ०-दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
+
 
<br>नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमल मति॥१॥
+
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
<br>राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
+
रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
<br>चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥२॥
+
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
<br>सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
+
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥
<br>बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥३॥
+
सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
<br>रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
+
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
<br>मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥४॥
+
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
<br>रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
+
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥
<br>त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥५॥
+
दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
<br>रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
+
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥
<br>तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥६॥
+
 
<br>कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥७॥
+
जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
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+
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
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+
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी॥
<br>दो०-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
+
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
<br>अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥
+
तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
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+
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥
<br>
+
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
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+
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥
<br>चौ०-संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
+
दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
<br>करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥१॥
+
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
<br>सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
+
 
<br>बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥२॥
+
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
<br>लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
+
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
<br>प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥३॥
+
रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
<br>सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
+
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
<br>मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥४॥
+
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
<br>भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥५॥
+
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
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+
तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
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+
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥
<br>दो०-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
+
दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
<br>तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥३६॥
+
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48(क)॥
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+
 
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+
सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
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+
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48(ख)॥
<br>चौ०-सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
+
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
<br>रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥१॥
+
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥
<br>राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
+
एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
<br>पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥२॥
+
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥
<br>छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
+
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
<br>अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥३॥
+
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
<br>सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
+
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
<br>धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥४॥
+
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥
<br>अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
+
दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
<br>नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥५॥
+
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
<br>सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
+
 
<br>संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥६॥
+
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा॥
<br>भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
+
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी॥
<br>सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥७॥
+
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
<br>औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥८॥
+
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
</span>
+
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
<span class="doha">
+
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
<br>दो०-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
+
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा॥
<br>माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥३७॥
+
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
</span>
+
दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
<br>
+
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद॥ 50॥
<span class="chaupaai">
+
</poem>
<br>चौ०-जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
+
<br>सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥१॥
+
<br>अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
+
<br>संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥२॥
+
<br>तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
+
<br>आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥३॥
+
<br>कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
+
<br>गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥४॥
+
<br>बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥५॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
+
<br>तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥३८॥
+
</span>
+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
+
<br>जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥१॥
+
<br>करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
+
<br>जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥२॥
+
<br>सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
+
<br>सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥३॥
+
<br>ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
+
<br>जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥४॥
+
<br>अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
+
<br>भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥५॥
+
<br>चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
+
<br>सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥६॥
+
<br>नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥७॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
+
<br>संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥३९॥
+
</span>
+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
+
<br>सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥१॥
+
<br>जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
+
<br>त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥२॥
+
<br>मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
+
<br>बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥३॥
+
<br>उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
+
<br>रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥४॥
+
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+
<span class="doha">
+
<br>दो०-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
+
<br>नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥४०॥
+
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+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
+
<br>नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥१॥
+
<br>सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
+
<br>घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥२॥
+
<br>सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
+
<br>कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥३॥
+
<br>राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
+
<br>काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥४॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
+
<br>कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥४१॥
+
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+
<br>
+
<span class="chaupaai">
+
<br>चौ०-कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
+
<br>हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥१॥
+
<br>बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
+
<br>ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥२॥
+
<br>बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
+
<br>राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥३॥
+
<br>सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
+
<br>भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥४॥
+
</span>
+
<span class="doha">
+
<br>दो०- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
+
<br>भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥४२॥
+
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<br>चौ०-आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
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<br>अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥१॥
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<br>राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
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<br>भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥२॥
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<br>काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
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<br>सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥३॥
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<br>जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
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<br>तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥४॥
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<br>दो०-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
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<br>सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥४३(क)॥
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<br>अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
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<br>कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥४३(ख)॥
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<br>चौ०-भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
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<br>तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥१॥
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<br>माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
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<br>देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥२॥
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<br>पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
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<br>भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥३॥
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<br>तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
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<br>मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥४॥
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<br>दो०-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
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<br>कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥४४॥
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<br>चौ०-एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
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<br>प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥१॥
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<br>एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
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<br>जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥२॥
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<br>सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
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<br>करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥३॥
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<br>नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
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<br>कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥४॥
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<br>दो०-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
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<br>होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥४५॥
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<br>चौ०-अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
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<br>राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥१॥
+
<br>संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
+
<br>आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥२॥
+
<br>सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
+
<br>रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥३॥
+
<br>एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
+
<br>नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥४॥
+
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<br>दो०-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
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<br>सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥४६॥
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<br>चौ०-जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
+
<br>जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥१॥
+
<br>राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
+
<br>चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥२॥
+
<br>तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
+
<br>महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥३॥
+
<br>रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
+
<br>ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥४॥
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+
<br>दो०-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
+
<br>भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥४७॥
+
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+
<br>चौ०-एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
+
<br>संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥१॥
+
<br>रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
+
<br>रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥२॥
+
<br>कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
+
<br>मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥३॥
+
<br>तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
+
<br>पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥४॥
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+
<br>दो०-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
+
<br>गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥४८(क)॥
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+
<br>सो०-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
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<br>तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥४८(ख)॥
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+
<br>चौ०-रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
+
<br>जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥१॥
+
<br>एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
+
<br>लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥२॥
+
<br>करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
+
<br>मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥३॥
+
<br>बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
+
<br>कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥४॥
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+
<br>दो०-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
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<br>जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥४९॥
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+
<br>चौ०-संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
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<br>भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥१॥
+
<br>जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
+
<br>चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥२॥
+
<br>सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
+
<br>संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥३॥
+
<br>तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
+
<br>भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥४॥
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<br>दो०-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।  
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<br>सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥५०॥
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11:20, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

॥श्री गणेशाय नमः ॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)

श्लोक
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥

सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी॥
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा॥
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥
छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10(क)॥
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥10(ख)॥

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥
दो0-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥
दो0-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7(क)॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7(ख)॥
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7(घ)॥

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥
निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास॥8॥

खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की॥
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥
दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥9॥



मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥
दो0-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें॥
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
दो0-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥
सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥
तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥

दो0-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
दो0-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14(क)॥
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14(ख)॥
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल॥14(ग)॥

सो0-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14(घ)॥
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14(ङ)॥
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14(च)॥
दो0-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14(छ)॥

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके॥
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥
सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥
सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥
बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥
सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥
रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महावीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
सो0-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥
दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥
दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥

समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
दो0-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥

राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
दो0-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
दो0-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
मासपारायण, पहला विश्राम

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥
दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28(क)॥
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28(ख)॥

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥
दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥29(क)॥
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29(ख)॥
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29(ग)॥

जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥
दो0-मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30(क)॥
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30(ख)

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥
दो0- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥

राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से॥
दो0-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32(क)॥
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32(ख)॥

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी॥
दो0-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥
दो0-मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमलमति॥
राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥
रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥
दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥
राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥
अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥
दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥

जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥
दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥

रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥
दो0-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥40॥

सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥
दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥
दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥
दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43(क)॥

अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥43(ख)॥
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।

कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥
सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥
दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥
दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥
दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48(क)॥

सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48(ख)॥
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥
दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी॥
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद॥ 50॥