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बिरही के प्राण गये हार! / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'

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नयन खुले गगन की पुकार
बिरही के प्राण गये हार!

किसकी यह करुणा रागिनी
गूंज उठी अंतर तम में जैसे
गा रही विहाग यामिनी

साँसों में घन का रव भर गया
नयनों के सिंधु में उछाह भर
पूनम का चाँद ज्यों उतर गया

बिजली की हँसी गई मार
दिशा-दिशा पुनः अंधकार!

तम में वह राह सो रही
चमक-चमक किरन की परी जैसे
घन में गुमराह हो रही

गति का अभिमान कौन ले गया?
धरती की मंज़िल हो दूर तो
क्षुब्ध आसमान कौन दे गया?

राहों के चरन की उभार!
राही से छल के व्यापार!