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बुलाहटा देती लड़कीयाँ / मनीष यादव

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देह पर हल्दी चढ़ने से पूर्व
मन की परतों पर
हल्दी के छींटे पड़ने प्रारंभ हो जाते हैं

वे लड़कियाँ अब छत पर चढ़ने के बाद
लोगों से नजरें फेरने लगती हैं

दृष्टि के सूक्ष्म लेंस में
जब वो निहारती हैं उन दो छोटी बच्चियों को
तब निश्चित ही स्मरण होता होगा उन्हें अपने नासमझ बचपन का‌!
 
पड़ोसियों के दुआरे पर जा कहते —
“ चलॶ हो चाची , गीत गावे के बुलाहटा हव् ”

गांव में विवाह के लगभग पाँच दिन पूर्व ही घर शादी के माहौल में झूमने लगता है!

बूढ़ी दादी देवता को पूजने लगती है ,
घर की औरतें गीत की तैयारियाँ शुरु कर देती हैं ,
हर शाम आँगन में गूँजने लगता है वो मधुर स्वर —

“ अँखिया के पुतरी हईं , बाबा के दुलारी..
   माई कहे जान हऊ .. तू मोर हो ”

आखिर त्याग की क्या परिभाषा हो सकती है?
घर से दूर कमाने गये लड़के को
वापस घर जाने का इंतज़ार होता है!

किंतु घर से ब्याह दी गई लड़की को?
इंतज़ार होता है..
पिता के घर जाने का ,
भाई के घर जाने का ,
पर अपने घर जाने का नहीं!

वो घर जहाँ से पिता की उंगली पकड़े
दो चोटी बाँध
एक टूटी हुई दाँत के साथ मुस्कुराते हुए निकलती थी कभी स्कूल को
वो बस अब उसकी स्मृतियों में कैद है
परंतु अधिकार में नहीं।

इतना विचारने तक अर्ध रात्रि हो चुकी होती है.
  
गाँव की औरतें वापस जा चुकी!
दिन अब पाँच से चार बचे हैं
पुन: कल चार से तीन बचेंगे।

आत्मा की ख़ुरचन
हल्का कैसा मीठा दर्द पैदा करती है ?

जब निद्रा में गोते लगाए,
डूब चूकी होती है सबके प्रसन्नता के बीच बहती पीड़ा की नदी में,

तो क्या ये संभव नहीं?
कि फ़िर उसी रात कुछ साहसी लड़कीयाँ उठाती हैं कलम
और लिखती हैं स्वयं को एक प्रेम पत्र
जिन्हें अपने हिस्से का प्रेम बांटने तक का मौका नहीं मिला।