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बोली तर्पण जल से, निर्जल बूढ़ी माई / प्रेम शर्मा

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जितना
जिसके खाते
करना है भरपाई,
     -बोली
     तर्पण जल से
     निर्जल बूढ़ी माई !
               
     कटती
     पिटती लकीर,
     बनते
     मिटते साँचे,
     पहले थे
     जो मंजीरे,
     अब वे
     टूटे काँसे,
साहिब
निकले फ़कीर
याचक निकले साईं !
             
     जलते
     बुझते अलाव
     अँधियारा
     उजियारा,
     काहे का
     अहंकार,
     कैसा
     ठाकुरद्वारा,
     -बोली
     सुरमंडल से
     उदासीन परछाईं !


(धर्मयुग, 16 दिसंबर, 1973)