भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ब्लोक के लिए-3 / मरीना स्विताएवा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:13, 29 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |संग्रह=आएंगे दिन कविताओं के / म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम मुड़ जाते हो सूर्यास्त की ओर
और देखने लगते हो साँझ का आलोक ।
तुम चल देते हो सूर्यास्त की ओर
और तूफ़ान मिटाने लगता है तुम्हारे पाँवों के निशान ।

उल्लासहीन तुम मेरी खिड़कियों के पास से
चल दोगे बर्फ़ की ख़ामोशी की तरफ़,
तुम- दिव्य, सुन्दर, सत्य के अनुयायी,
मेरे हृदय के शान्त आलोक ।

मैं पीछा नहीं करूंगी तुम्हारे हृदय का !
अक्षुण्ण है तुम्हारा पथ ।
मैं नहीं ठोकूंगी कोई कील
चुम्बनों से थके हाथ पर ।

चुप रहूंगी मैं नाम पुकारे जाने पर
न ही फैलाऊंगी हाथ ।
मोम के पवित्र मुख-मंडल का
दूर से ही करूंगी अभिवादन ।

झुक जाऊंगी घुटनों के बल
बर्फ़ पर शान्त हिमपात में,
तुम्हारा पवित्र नाम लेते
साँझ का मैं चूमूंगी आलोक ।

चूमूंगी वह जगह जिधर से
तुम गए ताबूत की ख़ामोशी में,
शान्त आओक
पवित्र गरिमा हो तुम ।
तुम हो परमशक्ति
मेरे हृदय की ।


रचनाकाल : 2 मई 1916

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह