भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भई की आब शिखर मैं हो तै जल्या नहीं करते / मेहर सिंह

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:10, 15 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मेहर सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatHaryan...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खरे आदमी मुहे पै कैह दें टल्या नहीं करते।
भई की आब शिखर मैं हो तै जल्या नहीं करते।टेक

ईज्जत मान पुत्र धन मिलता कर्मां के बांटे तै
गृहस्थी जन्म सफल होज्या सै अतिथि डाटे तै
कुल की आन रेत मैं रल ज्या कुणबे के पाटे तै
घरबारी कै बट्टा लागै सै भूखे नै नाटे तै
औरां का गल काटे तै कदे फल्या नहीं करते।

ये तीनों चीज मर्द बिन सुनी धरती, धन और घोड़ी
दुनियां में कितै मिलती कोन्या काग हंस की जोड़ी
जो अपणी आप बड़ाई करते हो उन की ईज्जत थोड़ी
बैरी कांटा रड़कै रात नै जैसे आंख में रोड़ी
पत्थरां कै म्हां लाल किरोड़ी कदे रला नहीं करते।

जिन की रयत सुख पावै हो भक्ति सफल नृप की
शुद्ध बाणी के बाल उच्चारण हो सै पकड़ हरफ की
जो मिल कै दगा करै प्यारे तै भोगै जगह सर्प की
ये पांडव रोज जिक्र करते हैं दुर्योधन तेरे तरफ की
हो राजा पाझार ढ़ाल बर्फ की गल्यां नहीं करते।

कर्मां के अनुसार करैं सब अपणे अपणे धन्धे नै
किसै की जिनस मंहगी बिकज्या कोए रोवै मन्दे नै
बड़े बड़यां के मन मोह लिए इस माया के फन्दे नै
कह मेहर सिंह वो पणमेशर नेत्र दे अन्धे नै
अपणे तै हिणे बन्दे नै कदे दल्या नहीं करते।