भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"भारतमाता / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रान…)
 
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 8 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रानंदन पंत
 
|संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रानंदन पंत
 
}}
 
}}
{{KKCatKavita}}
+
{{KKCatKavita‎}}
 +
{{KKPrasiddhRachna}}
 +
{{KKCatGeet}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
भारत माता
 +
ग्रामवासिनी।
 
खेतों में फैला है श्यामल
 
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
+
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा जमुना में आंसू जल
+
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी,
+
मिट्टी कि प्रतिमा  
 +
उदासिनी।
  
भारतमाता ग्रामवासिनी
+
दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
 +
अधरों में चिर नीरव रोदन,
 +
युग युग के तम से विषण्ण मन,
 +
वह अपने घर में
 +
प्रवासिनी।
  
दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन
+
तीस कोटि संतान नग्न तन,
अधरों में चिर नीरव रोदन
+
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
युग-युग के तम से विषण्ण मन
+
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
वह अपने घर में प्रवासिनी,
+
नत मस्तक
 +
तरु तल निवासिनी!
  
भारतमाता ग्रामवासिनी
+
स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
 +
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
 +
क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
 +
राहु ग्रसित
 +
शरदेन्दु हासिनी।
  
तीस कोटी संतान नग्न तन
+
चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
अर्द्ध-क्षुभित, शोषित निरस्त्र जन
+
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन
+
आनन श्री छाया-शशि उपमित,
नतमस्तक तरुतल निवासिनी,
+
ज्ञान मूढ़  
 +
गीता प्रकाशिनी!
  
भारतमाता ग्रामवासिनी
+
सफल आज उसका तप संयम,
 +
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
 +
हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
 +
जग जननी
 +
जीवन विकासिनी।
  
स्वर्ण शस्य पर पद-तल-लुंठित
+
रचनाकाल जनवरी १९४०
धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित
+
</poem>
क्रन्दन कम्पित अधर मौन स्मित
+
राहु ग्रसित शरदिंदु हासिनी,
+
  
भारतमाता ग्रामवासिनी
+
{{KKBhavarth
 +
|भावार्थ=कवि सुमित्रानंदन पंत जी कहते हैं कि भारत माता ग्रामवासिनी है अर्थात भारत माता कि आत्मा गाँव में निवास करती है। भारतीय किसान खेतों में काम करते हैं। केवल किसान ही नहीं बल्कि पूरा परिवार खुले आकाश के नीचे प्रातः काल से संध्या तक खेतों और मैदानों में खेती तथा पशु चारण कार्य में लगे होते हैं। फिर भी वह बहुत ही गरीब और पिछड़े हुए हैं। धूल भरा मैला-सा आंचल उनकी ग़रीबी का चिह्न है। उनका चेहरा उदास आंसू से भरी आंखें मूलतः दुख की प्रतिमा है। कवि की कल्पना है भारत माता अपनी संतानों को दुखी देखकर आंसू बहाती है।
  
चिंतित भृकुटी क्षितिज तिमिरान्कित
 
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित
 
आनन श्री छाया शशि उपमित
 
ज्ञानमूढ़ गीता-प्रकाशिनी,
 
  
भारतमाता ग्रामवासिनी
+
गंगा यमुना में भारत माता के आंसू जल प्रवाह के रूप में बह रहे हैं। आगे की पंक्तियों में कभी कहते हैं कि भारतमाता बहुत दुखी है - उनको इस बात का अधिक दुख है कि महानगरों में विकास कार्य हुआ है यहाँ की चमक-दमक और आर्थिक खुशहाली की तुलना में गाँव की बदहाली चिंता का विषय बनी हुई है। गाँव की 30 करोड़ से अधिक जनता को नग्न तन, भूखा, अभावग्रस्त और शोषित देखकर भारत माता दुखी और उदास है क्योंकि गाँव में निवासी असभ्य अशिक्षित होने के कारण पिछड़े हुए हैं। अधिकतर लोग तो ऐसे भी हैं जिनके पास रहने का निवास स्थान नहीं है। वृक्षों के नीचे निवास करते हैं। इसलिए कवि बहुत दुखी हैं भारत माता बहुत दुखी है।
  
सफ़ल आज उसका तप संयम
 
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम
 
हरती जन-मन भय, भव तन भ्रम
 
जग जननी जीवन विकासिनी,
 
  
भारतमाता ग्रामवासिनी
+
कवि सुमित्रानंदन पंत जी कहते हैं कि भारतमाता कि धरती बहुत ही उपजाऊ है। प्राकृतिक संपदा से समृद्ध है, लेकिन भारतवासी निर्धन है। उनका मन कुंठित है। कवि भारत माता को दुख की प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत करने के बाद भारत वासियों से आशा करता है कि अहिंसा, सत्य और तप, संयम के मार्ग पर चलकर वे अवश्य सफल होंगे।
</poem>
+
 
 +
 
 +
जन-जननी भारतमाता जीवन विकासिनी के रूप में हमारे लिए मार्गदर्शक बनकर आएगी। पंतजी ने भारतमाता के मूर्त स्वरूप का मानवीकरण करते हुए उनकी मानसिक स्थितियों का विवेचना किया है। कविकहते हैं कि भारतमाता कि भृकुटी पर चिंता कि रेखाएँ उभर आई हैं। छितिज पर अंधकार का साम्राज्य बढ़ रहा है। आंखे नम है और वाष्प से आच्छादित है। आनन यानी मुख मंडल पर चंद्रमा कि सुंदर छाया दृष्टिगत होती है। जो मूढ़ है उनको गीता ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करने वाली है।
 +
 
 +
 
 +
मूल भाव यह है कि भारत माता का स्वरूप विराट है। अपनी संतानों की पीड़ा, क्लेश, अभावग्रस्त एवं मूढ़ता से भारत माता चिंतित है। वह हर जन-जन में गीता ज्ञान का प्रकाश देखना चाहती है। धरा से गगन तथा अंधकार की जगह प्रकाश एवं ज्ञान का प्रसार चाहती है।
 +
 
 +
 
 +
नीचे की पंक्तियों में उन्होंने कहा है कि भारतमाता के जीवंत स्वरूप का चित्रण करते हुए उनकी भावनाओं का सटीक चित्रण किया है। कवि कहते हैं कि आज भारत माता कि संयमित तपस्या सफल सिद्ध हुई है। अपने स्तन से अहिंसा रूपी उत्तम सुधा का पान करा कर जन-जन के मन के भय को हरती है, साथ ही संसार के अंधकार एवं भ्रम से भी मुक्ति दिलाती है। भारतमाता जगत की जननी है। वह जीवन को विकास के शिखर पर पहुँचाने वाली माँ है।
 +
 
 +
 
 +
उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने भारतमाता के स्थूल स्वरूप का जीवंत चित्रण किया है। उसे जीवंत स्वरूप में मानवीय गुणों का उल्लेख किया है। साथ ही अपनी संततियों की रक्षा, प्रगति, सुश्रुषा के लिए चिंतित करुणामई माँ का चित्रण किया है।
 +
 
 +
 
 +
इस कविता का मूल भाव यह है कि-भारतमाता करुणामयी है, दयामयी है। उन्हें अपने सपूतों के सुख-दुख की चिंता है। उनके भीतर भौतिक चाहे आध्यात्मिक किसी भी प्रकार का ताप अथवा भ्रम नहीं रहे, यही उनकी कामना है।
 +
 
 +
|चित्र=Jyoti-kumari-kavitakosh-200px.jpg
 +
|लेखक=ज्योति कुमारी
 +
|योग्यता=सहायक शिक्षिका (हिंदी)
 +
}}

12:45, 6 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

भारत माता
ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी कि प्रतिमा
उदासिनी।

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग युग के तम से विषण्ण मन,
वह अपने घर में
प्रवासिनी।

तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत मस्तक
तरु तल निवासिनी!

स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
राहु ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी।

चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
आनन श्री छाया-शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी!

सफल आज उसका तप संयम,
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननी
जीवन विकासिनी।

रचनाकाल जनवरी १९४०

भावार्थ
कवि सुमित्रानंदन पंत जी कहते हैं कि भारत माता ग्रामवासिनी है अर्थात भारत माता कि आत्मा गाँव में निवास करती है। भारतीय किसान खेतों में काम करते हैं। केवल किसान ही नहीं बल्कि पूरा परिवार खुले आकाश के नीचे प्रातः काल से संध्या तक खेतों और मैदानों में खेती तथा पशु चारण कार्य में लगे होते हैं। फिर भी वह बहुत ही गरीब और पिछड़े हुए हैं। धूल भरा मैला-सा आंचल उनकी ग़रीबी का चिह्न है। उनका चेहरा उदास आंसू से भरी आंखें मूलतः दुख की प्रतिमा है। कवि की कल्पना है भारत माता अपनी संतानों को दुखी देखकर आंसू बहाती है।


गंगा यमुना में भारत माता के आंसू जल प्रवाह के रूप में बह रहे हैं। आगे की पंक्तियों में कभी कहते हैं कि भारतमाता बहुत दुखी है - उनको इस बात का अधिक दुख है कि महानगरों में विकास कार्य हुआ है यहाँ की चमक-दमक और आर्थिक खुशहाली की तुलना में गाँव की बदहाली चिंता का विषय बनी हुई है। गाँव की 30 करोड़ से अधिक जनता को नग्न तन, भूखा, अभावग्रस्त और शोषित देखकर भारत माता दुखी और उदास है क्योंकि गाँव में निवासी असभ्य अशिक्षित होने के कारण पिछड़े हुए हैं। अधिकतर लोग तो ऐसे भी हैं जिनके पास रहने का निवास स्थान नहीं है। वृक्षों के नीचे निवास करते हैं। इसलिए कवि बहुत दुखी हैं भारत माता बहुत दुखी है।


कवि सुमित्रानंदन पंत जी कहते हैं कि भारतमाता कि धरती बहुत ही उपजाऊ है। प्राकृतिक संपदा से समृद्ध है, लेकिन भारतवासी निर्धन है। उनका मन कुंठित है। कवि भारत माता को दुख की प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत करने के बाद भारत वासियों से आशा करता है कि अहिंसा, सत्य और तप, संयम के मार्ग पर चलकर वे अवश्य सफल होंगे।


जन-जननी भारतमाता जीवन विकासिनी के रूप में हमारे लिए मार्गदर्शक बनकर आएगी। पंतजी ने भारतमाता के मूर्त स्वरूप का मानवीकरण करते हुए उनकी मानसिक स्थितियों का विवेचना किया है। कविकहते हैं कि भारतमाता कि भृकुटी पर चिंता कि रेखाएँ उभर आई हैं। छितिज पर अंधकार का साम्राज्य बढ़ रहा है। आंखे नम है और वाष्प से आच्छादित है। आनन यानी मुख मंडल पर चंद्रमा कि सुंदर छाया दृष्टिगत होती है। जो मूढ़ है उनको गीता ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करने वाली है।


मूल भाव यह है कि भारत माता का स्वरूप विराट है। अपनी संतानों की पीड़ा, क्लेश, अभावग्रस्त एवं मूढ़ता से भारत माता चिंतित है। वह हर जन-जन में गीता ज्ञान का प्रकाश देखना चाहती है। धरा से गगन तथा अंधकार की जगह प्रकाश एवं ज्ञान का प्रसार चाहती है।


नीचे की पंक्तियों में उन्होंने कहा है कि भारतमाता के जीवंत स्वरूप का चित्रण करते हुए उनकी भावनाओं का सटीक चित्रण किया है। कवि कहते हैं कि आज भारत माता कि संयमित तपस्या सफल सिद्ध हुई है। अपने स्तन से अहिंसा रूपी उत्तम सुधा का पान करा कर जन-जन के मन के भय को हरती है, साथ ही संसार के अंधकार एवं भ्रम से भी मुक्ति दिलाती है। भारतमाता जगत की जननी है। वह जीवन को विकास के शिखर पर पहुँचाने वाली माँ है।


उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने भारतमाता के स्थूल स्वरूप का जीवंत चित्रण किया है। उसे जीवंत स्वरूप में मानवीय गुणों का उल्लेख किया है। साथ ही अपनी संततियों की रक्षा, प्रगति, सुश्रुषा के लिए चिंतित करुणामई माँ का चित्रण किया है।


इस कविता का मूल भाव यह है कि-भारतमाता करुणामयी है, दयामयी है। उन्हें अपने सपूतों के सुख-दुख की चिंता है। उनके भीतर भौतिक चाहे आध्यात्मिक किसी भी प्रकार का ताप अथवा भ्रम नहीं रहे, यही उनकी कामना है।
Jyoti-kumari-kavitakosh-200px.jpg
ज्योति कुमारी
सहायक शिक्षिका (हिंदी)