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"भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है / मासूम गाज़ियाबादी" के अवतरणों में अंतर

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भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है।
 
भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है।
करके न्ण्गा ये सरे आम नचा देती है।।
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करके नंगा ये सरे आम नचा देती है।।
  
आप इन्सानी जफ़ओं का गिला करते हैं।
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आप इन्सानी जफ़ाओं का गिला करते हैं।
 
रुह भी ज़िस्म को इक रोज़ दग़ा देती है।।
 
रुह भी ज़िस्म को इक रोज़ दग़ा देती है।।
  

01:41, 14 मार्च 2010 के समय का अवतरण

भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है।
करके नंगा ये सरे आम नचा देती है।।

आप इन्सानी जफ़ाओं का गिला करते हैं।
रुह भी ज़िस्म को इक रोज़ दग़ा देती है।।

कितनी मज़बूर है वो माँ जो मशक़्क़त करके।
दूध क्या ख़ून भी छाती का सुखा देती है।।

आप ज़रदार सही साहिब-ए-किरदार सही।
पेट की आग नक़ाबों को हटा देती है।।

भूख दौलत की हो शौहरत की या अय्यारी की।
हद से बढ़ती है तो नज़रों से गिरा देती है।।

अपने बच्चों को खिलौनों से खिलाने वालो!
मुफ़लिसी हाथ में औज़ार थमा देती है।।

भूख बच्चों के तबस्सुम पे असर करती है।
और लडअकपन के निशानों को मिटा देती है।।

देख ’मासूम’ मशक़्क़त तो हिना के बदले।
हाथ छालों से क्या ज़ख़्मों से सजा देती है।।