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मंज़िल इतनी दूर रहेगी, यह कब सोचा था / विजय 'अरुण'
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मंज़िल इतनी दूर रहेगी, यह कब सोचा था
मुझे तो पैरों की ताक़त पर बहुत भरोसा था।
इतने काँटे राह में होंगे और इतने पत्थर
चलने से पहले रहबर ने कब समझाया था।
इतनी दूर निकल आया हूँ अपने घर से मैं
अब लौटूँ तो भूलूँ उस का कौन-सा रस्ता था।
अब मैं रहबर का रहबर हूँ क्योंकि वह कहता है
इस सरहद के पार वह अब तक कभी न आया था।
अगर 'अरुण' को छोड़ न देता रस्ते में रहबर
कैसे कहता मंज़िल पर वह तन्हा पहुँचा था।