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"मंत्र 1-5 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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:::कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।<br>
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।<br>
:::एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥<br>
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एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥<br>
 
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:::कर्तव्य  कर्मों  का  आचरण, ईश्वर  की  पूजा मान कर, <br>
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कर्तव्य  कर्मों  का  आचरण, ईश्वर  की  पूजा मान कर, <br>
:::सौ  वर्ष  जीने  की  कामना  है, ब्रह्म  ऐसा  विधान  कर।<br>
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सौ  वर्ष  जीने  की  कामना  है, ब्रह्म  ऐसा  विधान  कर।<br>
:::निष्काम  निःस्पृह  भावना  से  कर्म  हमसे  हों यथा,<br>
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निष्काम  निःस्पृह  भावना  से  कर्म  हमसे  हों यथा,<br>
:::कर्म  बन्धन  मुक्ति  का, कोई  अन्य  मग  नहीं अन्यथा॥ [२]<br><br>       
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कर्म  बन्धन  मुक्ति  का, कोई  अन्य  मग  नहीं अन्यथा॥ [२]<br><br>       
 
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अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।<br>
:::तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥<br>
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तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥<br>
 
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:::है  ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है, <br>
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:::ज्ञानस्वरूपी,  आदि  कारण, सृष्टि  का  है  महान है।<br>
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ज्ञानस्वरूपी,  आदि  कारण, सृष्टि  का  है  महान है।<br>
:::स्थित  स्वयं  गतिमान  का,  करे  अतिक्रमण  अद्भुत  महे,<br>
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स्थित  स्वयं  गतिमान  का,  करे  अतिक्रमण  अद्भुत  महे,<br>
:::अज्ञेय  देवों  से, वायु  वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]<br><br>
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अज्ञेय  देवों  से, वायु  वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]<br><br>
 
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18:19, 5 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥

ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥

कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]

असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥

अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]

अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥

है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥

चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]