भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन की साख / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:02, 16 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन, मन की न कहीं साख गिर जाये,
क्यूँ शिकायत है?-भाई हर मन में जलन है।
दृग जलधार को निहारने का रोज़गार--
कैसे करें?-हर पुतली में प्राणधन है।
व्यथा कि मिठास का दिवाला कैसे काढ़े उर?
कान कहाँ जायें? लगी प्राणों से लगन है।
प्यार है दिवाना उसे कुछ भी न पाना
वह तेरे द्वार धूनियाँ रमाने में मगन है।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४५