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"मरघट में एक और जश्न / कल्पना सिंह-चिटनिस" के अवतरणों में अंतर

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21:32, 27 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

जाने कितनी मन्नतें मानकर
उसने एक सुबह मांगी थी,
और सूरज की चुटकी भर सिंदूरी किरण से
अपनी मांग सजाई थी।

पर समाज के अवैध खाते में
एक स्त्रियोचित कर्ज था वह,
जिसे अदा करते-करते
वह पूरी की पूरी चुक गयी
और उसकी सुबह
रात के हवाले कर दी गई।

फिर इंसानियत के मरघट में
दहेज़ ने एक और चिता सजाई,
हवस ने एक और जश्न मनाया।