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"मर जाते हैं कुछ बेचारे क्या कीजे / रविकांत अनमोल" के अवतरणों में अंतर

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जब हारे अपनों से हारे क्या कीजे
 
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13:16, 25 सितम्बर 2010 का अवतरण

उनसे मिलते हैं ग़म सारे क्या कीजे
फिर भी वो लगते हैं प्यारे क्या कीजे

सर ढकने को छत मिलती तो अच्छा था
किस्मत में हैं चंद सितारे क्या कीजे

टूटे सपने अंधी आँखों में लेकर
मर जाते हैं कुछ बेचारे क्या कीजे

जिन लोगों ने दुनिया की ख़ातिर सोचा
वो फिरते हैं मारे मारे क्या कीजे

या तो वो बहरे हैं जिनको सुनना था
या गूँगे हैं गीत हमारे क्या कीजे

शायर की आँखों में आग न पानी है
प्यासे हैं हम नदी किनारे क्या कीजे

ग़ैरों ने हर बार हमारा साथ दिया
जब हारे अपनों से हारे क्या कीजे