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महानगर की सड़कों पर तनकर / प्रमोद तिवारी

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महानगर की सड़कों पर
तनकर चलने में
अपने ही भीतर हम
घुटनों तक झुके हुए

कहने को एक नहीं
कई-कई रिश्ते हैं
चढ़े हुए दरिया पर
पुल जैसे बिछते हैं
होंठों के हिले बिना
कीमत लग जाती है
आंखों ही आंखों में
सरेआम बिकते हैं
सबके सब
इज्जत की खाते-कमाते हैं
शीशे की दीवारों के
पीछे छुपे हुए