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माँ और मैं / निरुपमा दत्त

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शायद बचपन में उसने
किसी सुन्दर राजकुमार की कभी कोई कथा सुनाई हो
मुझे याद नहीं

पर अब, जब मैं दिन-भर की धूल
पाँवों से धोकर उसके पास लेटती हूँ
तो वह कहती है
हाँ, सारा धुआँ मेरे मुँह पर ही छोड़
और शुक्र मना कि तेरे पिता नहीं रहे
उनके सामने तुम यों सिगरेट नहीं पी सकती थी

तुम्हारे पिता भी अजीब थे
तमाम सख़्तियाँ सिर्फ़ औरतों के लिए
और ख़ुद...
तुम्हारे पिता भी
और मेरे भी
ख़ैर, पिता, पति, बेटा
सभी एक-सी सज़ा के हक़दार हैं
यह मर्द ज़ात ही ऐसी है
इनका विश्वास करना ग़लती है
 
मैं कहती हूँ
कोई तो होगा
कहीं कोई एक
विश्वास करने योग्य
लेकिन वह खीझ जाती है

सिगरेट उधर रख और ज़्यादा न बोल
बड़ी आई विश्वास करने वाली
विश्वास किया और देखा नहीं तूने ?
फिर रो-पीटकर मरने को भागोगी
मुझे हैरानी होती है तुम लोगों पर
मर्द ज़ात के लिए मरना
इससे बड़ी बेवक़ूफ़ी क्या होगी ?
रह नहीं सकती इनके बिना
यह कोई हमारा समय है

तुम कमाती-खाती हो
जूती की नोक पर धरो इन्हें
और ऐश करो
देखो, मेरे सामने मत बोलना
मैंने पैंसठ साल की उम्र भोगी है

बहुत आसान फ़लसफ़ा है माँ का
वह यह भी कहती है
जहाँ प्यार करो
ब्याह मत करो
प्यार से मेरा मतलब शुद्ध प्यार है
हमारे समय-सा
आजकल जैसा नहीं

ब्याह से पहले
वह देवता लगता है
और बाद में
ईंट - चूने के घर में
औरों की तरह ही फटीचर
देवता का बुत क्यों तोड़ें

माँ मर्दों को कुछ नहीं समझती
उन्हें कोसती
उनकी निन्दा करती है
लेकिन यदि किसी एक बेटे का
ख़त आने में देर हो जाए
तो रात को रजाई में
छिपकर रोती है
कि सुबह जागकर
मुँह धोते ही
ऐलान करती है
पुत्तरों का कोई
क़सूर नहीं
यह चन्दरी जाति ही ऐसी है ।

पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद : फूलचन्द मानव