भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / भाग २३ / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं

वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाड़ू लगाते हैं


हुमकते खेलते बच्चों की शैतानी नहीं जाती

मगर फिर भी हमारे घर की वीरानी नहीं जाती


अपने मुस्तक़्बिल की चादर पर रफ़ू करते हुए

मस्जिदों में देखिये बच्चे वज़ू करते हुए


मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं

मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ


घर का बोझ उठाने वाले बच्चे की तक़दीर न पूछ

बचपन घर से बाहर निकला और खिलौना टूट गया


जो अश्क गूँगे थे वो अर्ज़े—हाल करने लगे

हमारे बच्चे हमीं पर सवाल करने ल्गे


जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया

हम उन परिंदों को फिर से घरों में छोड़ आए


भरे शहरों में क़ुर्बानी का मौसम जबसे आया है

मेरे बच्चे कभी होली में पिचकारी नहीं लाते


मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे

इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा


भूख से बेहाल बच्चे तो नहीं रोये मगर

घर का चूल्हा मुफ़लिसी की चुग़लियाँ खाने लगा