भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मातृभूमि की कोख / रुचि बहुगुणा उनियाल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:23, 27 अप्रैल 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुचि बहुगुणा उनियाल |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निकलूँगी सुबह की पहली किरण की तरह क्वार की कोख से
और चूम लूँगी हौले से उन्नत भाल अपने हिमाल का

निर्झर बहूँगी हहराती सी... गीतों की लड़ियाँ बुनती
अपने हिमाल की भुजाओं में सिमटती हुई

दस बाइ बारह के कमरे से लगी अदना सी बालकनी के किसी गमले में नहीं

मैं जन्मूँगी सैकड़ों मील तक फैले मखमली बुग्याल के आँचल में ।

उग आऊँगी निपट बेपरवाह और बेपनाह ख़ूबसूरत प्योंली के फूल में पहाड़ के किसी भीटे पर

कहीं किसी बांज के जंगल के तलुवों से फूट पड़ूँगी
मीठे 'छ्वोया' के रूप में चुपचाप

या कि उमग आऊँगी पथरीली पहाड़ी चट्टान पर
उन्मुक्त हो कर किसी जंगली बेल की तरह
और लिपट जाऊँगी देवदार के सुदृढ़ तने से बेझिझक

मेरे जाने के बाद भी
मिलना चाहो तो लौट आना मेरे पहाड़ पर
मिलूँगी हिमाल पर ही कहीं कस्तूरी मृग सी कुलांचे भरती हुई
किसी धारे में मिल जाऊँगी नर्म हरी घास सी उगी हुई
कुछ नहीं तो छूकर देखना किसी पहाड़ी ढलवां खेत की मिट्टी को,

मेरी उपस्थिति दर्ज होगी वहीं अपनी मातृभूमि की मिट्टी की नर्म और गर्म कोख में किसी बीज के रूप में!