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माफीनामा / मदन कश्यप

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मेरी धमनियों में उन राज्यों का रक्त है
जो कभी छत्री रहे तो कभी बाम्हन
जिन्होंने बनाया था दुनिया का पहला 'गणतंत्र'
मगर तुम्हें नहीं दिया था चुनने का अधिकार

उसके सातों कुल उनके ही थे
सातों नदियों पर उनका ही अधिकार था
उनके ही कब्जे में थीं सातों लोको की कथाएँ

इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है
कि तुम कहाँ थे और कैसे थे
बींसवी सदी में तुमने जिसे बहुत-बहुत याद किया
उस गौतम बुद्ध ने भी तुम्हें कितना अपनाया था
कुछ ठीक-ठीक पता नहीं

तुम्हारे पुरखे क्या करते थे
कैसे जीते थे
तन को छुए बिना
मन को कैसे छूते थे
क्या घृणा करनेवालों से वे भी घृणा करते थे
क्या वे अपने घरों में भी बहुत कम बोलते थे

मैं एक 'भरोसा महरा' को जानता हूँ
जो हमारे खेतों में हल चलाते थे
जग-परोजन में शहनाई भी बजाते थे
बातें कम करते थे
कम खा कर कम पहन कर जिन्दा रहते थे

दूर से उस ईश्वर को प्रणाम करते थे
जिसके मंदिर में जाने की इजाजत उन्हें नहीं थी
धर्म की उन कथाओं को सिर झुका सुनते थे
जिनमें उनके पुरखों को नीच-पातकी बताया जाता था

उन्हें लांछनों से ज्यादा पेट की चिंता थी

एक दिन चले गए दुनिया से चुपचाप
घी में तली पूरियाँ और आलूगोभी की रसदार तरकारी
खाने की अपनी पुरानी इच्छा को अनाथ छोड़ कर
उनके बेटे तो पहले ही जा चुके थे झरिया-अंडाल

ठीक है कि उनकी झोपड़ी नहीं जलाई गई
उन्हें कभी लाठियों से पीटा नहीं गया
गांव से खदेरा नहीं गया
मगर जुल्म उन्होंने भी कम नहीं सहे
ऐसे जुल्म जिन्हें परिभाषित करना भी उनके बस में नहीं था
प्रतिकार की तो बात ही दूर रहे
मैं शर्मिंदा हूँ अपने पितरों के किए पर
उन्होंने मुझे सिखाया
भरोसा को छूने से अपवित्र हो जाएगी बाभन देह
और मैं दूर रह कर ही सुनता रहा शहनाई।



हे पितर
मुझे आभारी होना चाहिए था
तुमने जीवन दिया पहचान दी
अपने हिस्से की भूमि दी
जहाँ तक हो सका अपने दुख को छुपाए रखा
लेकिन मैं तो लज्जा से ग्रस्त हूँ
कि तुम पुश्त-दर-पुश्त बने रहे पवित्रता के सौदागर
और इतराते रहे अत्याचारों को धर्मसंगत बनाने की अपनी क्रूर चतुराई पर
तुम्हें पता ही नहीं था
आदमी को आदमी न समझ कर
तुम खुद कितने आदमी रह गए थे

हमारे कंधे पर बेताल की तरह चढ़ा है
तुम्हारे दुराचारों का इतिहास
अब तुम्हीं बताओ इसे कहाँ ले जाऊँ
किस आग से जलाऊँ
किस नदी में बहाऊँ!

(2009)